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________________ 126 वर्ण, जाति और धर्म दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा / झाणज्झयणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि // 1 // श्रावकधर्ममें दान और पूजा ये दो कर्म मुख्य हैं। जो इन कर्मोको नहीं करते वे श्रावक नहीं हो सकते। तथा मुनिधर्ममें ध्यान और अध्ययन ये दो कर्म मुख्य हैं / जो इन कर्मोंको नहीं करते वे मुनि नहीं हो सकते। ___ अतएव यह सम्भव है कि गृहस्थधर्मका उपदेश करते समय आदिनाथ जिनने गृहस्थोंको आवश्यकरूपमें देवपूजा आदि कर्मोको प्रतिदिन करनेका उपदेश दिया हो / किन्तु इन कर्मोंको केवल तीन वर्णका गृहस्थ ही कर सकता है शूद्रवर्णका गृहस्थ नहीं इसे आगम स्वीकार नहीं करता, क्योंकि जैन आचारशास्त्र में जिन आवश्यक कर्मोंका उल्लेख मिलता है वे मुनियोंके समान गृहस्थों के द्वारा भी अवश्य करणीय कहे गये हैं। यह विचारणीय बात है कि जब कि शूदवर्णका मनुष्य भी गृहस्थ धर्मको स्वीकार कर सकता है और उसकी जिनदेव, जिनगुरु, जिनागम और उनके आयतनोंमें अटूट श्रद्धा होती है ऐसी अवस्थामें वह उनकी पूजा किये बिना रहे तथा अतिथिसंविभागवतका पालन करते हुए वह मुनियोंको दान न दे यह कैसे हो सकता है ? हम पहले सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके साधनोंका निर्देश करते समय जिनबिम्बदर्शन और जिनधर्मश्रवण इन दो साधनोंका स्वतन्त्ररूपसे उल्लेख कर आये हैं / ये साधन तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगतिके जीवोंमें समान रूपसे पाये जाते हैं / नरकगतिमें अवश्य ही जिनबिम्बदर्शन साधन सम्भव नहीं है / यह तो निर्विवाद सत्य है कि मनुष्यगतिमें केवल तीन वर्ण का मनुष्य ही सम्यग्दर्शन आदि धर्मका अधिकारी नहीं है / उनके साथ शूद्र वर्णका मनुष्य भी उसका अधिकारी है, इसलिए अन्य तीन वर्णके मनुष्यों, तिर्यञ्चों और देवोंके समान वह भी जिनमन्दिर में जाकर जिन प्रतिमाकी पूजा और स्वाध्याय करे, उत्तम, मध्यम और जंघन्य अतिथिके
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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