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________________ ज्ञानपीठ की पूर्व अध्यक्षा स्वर्गीया श्रीमती रमारानी जी का मैं इस अवसर पर साभार स्मरण करता हूँ जिन्होंने मुझे वे सब अनुकूलताएँ उपस्थित कर दी थीं जिनके कारण मैं इस पुस्तक का निर्माण कर सका। वे वर्तमान में इस धरातल पर अपने प्रकृत रूप में नहीं हैं। यदि वे होतीं तो आज मुझे ऐसा अवसर उपस्थित करती रहतीं जिससे इन तथ्यों को मूर्तरूप देने में विशेष सहयोग मिलता। मान्य साहू अशोक कुमार जी कुछ समय पूर्व हस्तिनापुर मेरे निवास स्थान पर पधारे थे। उनसे मैंने इस पुस्तक के पुनः प्रकाशन का निवेदन किया था। उन्होंने उसे नोट भी करा लिया था। प्रस्तुत (द्वितीय) संस्करण उसी का परिणाम है। इसके लिए मैं उनका बहुत-बहुत आभारी हूँ। मैं चाहता हूँ कि भारतीय ज्ञानपीठ इसका विशेष प्रचार करे ताकि समाज में . और वर्तमान त्यागियों में फैली मान्यता के बदलने में सहायता मिले। जैनधर्म पर लगा यह कलंक धुलना ही चाहिए ऐसा मैं मानता हूँ। अन्य जिन महानुभावों का विशेष सहयोग मिला है, उनका आदरपूर्वक नामोल्लेख तो मैं पूर्व में ही कर आया हूँ। विज्ञेषु किमधिकम्। ... -फूलचन्द्र शास्त्री
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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