________________ निकास होता है / यह मात्रा लगभग एक लीटर होती है दीर्घ श्वसन में वायु की कुल मात्रा 4 लीटर या अधिक हो सकती है जबकि सामान्य श्वसन में इसका परिमाण लगभग आधा लीटर ही होता है। अधिकतम दीर्घ रेचक के उपरान्त भी फेफड़ों में कुछ वायु शेष रह जाती है / इसकी मात्रा लगभग आधा लीटर होती है। केन्द्रीय नाड़ी संस्थान श्वसन क्रिया के लिये उत्तरदायी है। यह स्वाभाविक क्रिया है तथापि दीर्घ श्वसन या कुम्भक के समय इसे चेतन रूप से. इच्छानुकूल कर सकते हैं। फेफड़ों की आकृति उस वक्षस्थल की भाँति ही होती है जिसमें वे स्थिर रहते हैं / वक्षस्थल की आकृति शंक्वाकार अर्थात् नीचे चौड़ी एवं ऊपर सँकरी होती है / वक्षस्थल की सतह का निर्माण श्वास-पटल से होता है जो गुम्बज की , आकृति की स्नायविक-रचना है / इसका श्वास क्रिया में बहुत महत्व है। दोनों फेफड़े हृदय द्वारा अलग किये जाते हैं / इनका संबंध हदय एवं श्वासनलिका के मूल से है / प्रत्येक फेफड़ा अपने कार्यों में स्वतंत्र है। ये कक्षा या विभागों में विभाजित होते हैं। दाहिना फेफड़ा तीन भागों में विभक्त है | बायें फेफड़े के दो उपविभाग हैं / इसकी आंतरिक सतह पर नर्म तथा चिकनी झिल्ली का आवरण होता है जिसे फुस्फुसावरण (pleura ) कहते हैं। ऐसा ही आवरणं श्वास - पटल के साथ फुस्फुस या फेफड़े के बाहरी ओर अर्थात वक्षस्थल की आंतरिक सतह पर भी होता है। चिकनाहट प्रदान करने वाले विशेष द्रव द्वारा फुस्फुसावरण को नम रखा जाता है / फेफड़ों के विस्तार तथा हृदय और उसके संकुचन की क्रिया इसी के परिणामस्वरूप होती है। वायु अधिकतर शुष्क तथा बहुत शीतल होती है। अतः फेफड़ों में पहुँचने के पूर्व श्वास द्वारा ली गई वायु में परिवर्तन करना आवश्यक है, अन्यथा फेफड़ों के पेशी-जाल शीघ्र ही शुष्क हो जायेंगे / वातावरण की वायु में धुआँ, धूल-कण एवं कीटाणु मिश्रित होते हैं / इसीलिये फेफड़ों में वायु-प्रवेश के पूर्व अशुद्धियों का निवारण होना चाहिये / विपरीत स्थिति से शीघ्र ही फेफड़े में रोग का आक्रमण हो जायेगा; गंदगी एवं धूलकणों से वह भर जायेगा / इस खतरे से बचने के लिये शरीर में नियमबद्ध वायु-शुद्धिकरण की प्रणाली है / यह प्रक्रिया नासिका से प्रारम्भ होती है / नासिका में केश हैं जिनका रुख बाहर की ओर है / ये बाल वायु को छानकर धूल-कण को एक बड़े पैमाने में भीतर जाने से रोक देते हैं / नासिका का भीतरी भाग वायु को नमी एवं गर्मी प्रदान करता 376