________________ अपेक्षाकृत सूक्ष्म नलिकाओं (alveoli) से निर्मित वायुकोशों में इन्हीं वाहिनियों द्वारा वायु पहुँचायी जाती है / वायुकोश अति सूक्ष्म होते हैं जो सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा ही देखे जा सकते हैं / इनकी आकृति मधुमक्खी के छत्ते की भाँति होती है। वायु कोशायें पर्याप्त स्थान प्रदान करती हैं जिसमें से वायु का प्रवाह हो सकता है। यदि इनका फैलाव किया जाये तो वे एक हजार वर्ग फुट से भी अधिक स्थान घेर लेंगी जो कि शरीर के बाह्य चर्म के क्षेत्रफल से बीस गुना अधिक है। . प्रत्येक सूक्ष्म वायुकोशा केशवाहिनियों से अच्छी तरह ढंका होता है जो कि सबसे छोटी रक्त नलिकायें हैं। केशवाहिनियों की दीवारें इतनी पतली होती हैं कि इनमें ओषजन प्रवेश कर रक्त-संस्थान की रक्त-कोशाओं में पहुँच जाती है। ओषजन का संयोग लाल रक्त कोशाओं से होने पर नीला मिश्रित जामुनी * रंग का रक्त चमकीले लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् हृदय के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में ओषजन का वितरण होता है / साथ ही कार्बन द्वि ओषिद का प्रवाह रक्त से वायु कोशाओं में होता है तथा प्रश्वास द्वारा फेफड़ों एवं शरीर के बाहर हो जाता है। सामान्यतः हम एक मिनट में 15 बार श्वास लेते हैं। प्रत्येक श्वास द्वारा लगभग आधा लीटर वायु ग्रहण की जाती है / फेफड़े साधारणतः तीन लीटर वायु रखने में समर्थ होते हैं। प्रत्येक श्वसन में ली गई वायु का अदलबदल किया जाता है / कठिन व्यायाम के समय भी यह मात्रा बढ़ जाती है / श्वसन क्रिया दो विधियों से होती है(अ) पसलियों का बाहर व ऊपर की ओर विस्तार / (ब) उदर की ऊपरी दीवार का बाहरी विकास / इससे श्वसन पटल का खिंचाव नीचे की ओर होता है / - उपरोक्त दोनों गतिविधियों के कारण हृदय-गह्वर का विस्तार होता है / उसी क्षण फेफड़े इसका अनुकरण करते हैं / दीर्घ श्वास के समय यह गति तीव्र हो जाती है / फलतः हृदय-गुहा का आयतन बढ़ जाता है / यही क्रिया फेफड़ों में होती है / परिणामतः अधिक वायु का प्रवेश फेफड़ों में होता है / वायु का परिमाण लगभग दो लीटर होता है जो सामान्य से अधिक है। पसलियों के पिंजरे या हृदय गहा एवं उदर का अधिकतम आकुंचन कर दीर्घ प्रश्वास क्रिया की जा सकती है। इससे अतिरिक्त मात्रा में वायु का 375