________________ -- इन दो नाड़ियों की शुद्धि तथा मन पर नियंत्रण प्राप्त हो जाने पर तृतीय प्रमुख नाड़ी सुषुम्ना में प्रवाह होता है / इड़ा तथा पिंगला नाड़ियों में प्राण के प्रवाह में सन्तुलन आने पर यह स्थिति उत्पन्न होती है तथा बायें एवं " दाहिने स्वर - प्रवाह में समानता होने पर ही प्राणों के प्रवाह में सन्तुलन आता है / ध्यान के अभ्यास में उच्चतम सफलता प्राप्ति के लिए सुषुम्ना का प्रवाहित होना अनिवार्य है। इस अभ्यास - काल में यदि पिंगला में प्रवाह होगा तो साधक कुछ असुविधा का अनुभव करेगा और यदि इड़ा में प्रवाह होगा तो चिंतन-क्रिया अधिक होगी / मात्र सुषुम्ना के प्रवाह से ही साधक उच्च ध्यान में सफल होगा, क्योंकि सुषुम्ना नाड़ी से ही कुण्डलिनी विभिन्न चक्रों से होती हुई जाती है। ___मानव - शरीर विज्ञान के अनुसार अनैच्छिक नाड़ी संस्थान की दो नाड़ियों अर्थात् अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तंत्रिकाओं से 'इड़ा- पिंगला' की समानता स्थूलतः दी जा सकती है। पिंगला नाड़ी अनुकंपी तंत्रिका के समरूप है जो कि तीव्र क्रियाशीलता के लिए उत्तरदायी है। इन क्रियाओं का सम्बन्ध बाह्य वातावरण से तथा उन आंतरिक अंगों से होता है, जो आन्तरिक रूप से शक्ति का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ- अनुकंपी तंत्रिका हृदय की गति तीव्र करती है, रक्त नलिकाओं में फैलाव लाती है, श्वसन दर में वृद्धि करती है, कर्ण व नेत्रों की क्षमता को बढ़ाती है। इस प्रकार व्यक्ति का शरीर बाह्य क्रियाओं के लिए तैयार किया जाता है / परानुकम्पी तंत्रिकायें इसके विपरीत कार्य करती हैं। ये तंत्रिकायें हृदय - गति न्यून कर देती हैं तथा रक्त नलिकाओं का आकुंचन करती हैं, श्वसन क्रिया मंद कर देती हैं। परिणामतः व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है। अधिकांश व्यक्तियों के लिए इन नाड़ियों की क्रियायें अनैच्छिक एवं अज्ञात रहती हैं। व्यक्ति इनके प्रति सचेत नहीं रहते। यही बात इड़ा - पिंगला के लिए भी लागू होती है / यौगिक अभ्यासों द्वारा इन पर नियंत्रण -प्राप्ति तक इनकी क्रियायें भी पूर्णतः अनैच्छिक तथा अचेतन रूप * से होती हैं। . 359