________________ * रखिये | एक बार आसन की स्थिति में बैठने पर पूर्ण अभ्यास- काल तक किसी भी शर्त पर, किसी भी दशा में शरीर में किसी प्रकार की गति न कीजिए / अभ्यास के लिए पूर्णतः तैयार हो जाने पर नेत्रों को खोलिए / गहन एकाग्रता से लौ के सर्वाधिक प्रकाशित बिंदु को देखिये जो बत्ती के अंतिम छोर के ठीक ऊपर होता है। कुछ अभ्यास के पश्चात् नेत्रों में बिना गति उत्पन्न किये या पलक झपकाये आप कुछ देर लौ की ओर देखने में समर्थ होंगे। पूर्ण एकाग्रता से उसे देखते रहिये / पूर्ण चेतना नेत्रों पर इस सीमा तक एकाग्र कीजिये कि आपका शेष शारीरिक ध्यान विस्मृत हो जाये। .. एकाग्र दृष्टि पूर्णतः एक विशेष बिन्दु पर ही हो / नेत्रों के थक जाने पर (अनुमानतः कुछ क्षणों के बाद) या नेत्रों में आँसू आने प्रारम्भ होने पर उन्हें बन्द कर शिथिल कीजिये / शरीर को स्थिर ही रखिये / बन्द नेत्रों के सम्मुख लौ के प्रतिबिम्ब के प्रति सजग रहिए / अचानक सूर्य या तेज प्रकाश की ओर देखकर नेत्रों को बन्द करने के उपरान्त नेत्रों के गोलको पर पड़े उस वस्तु के प्रभाव के परिणामस्वरूप वस्तु -विशेष का साफ प्रतिबिम्ब कुछ देर तक दिखाई देता है / प्रायः सभी व्यक्तियों को इसका अनुभव होगा। इसी प्रकार लौ का प्रतिबिम्ब स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है | इसे भ्रूमध्य के ठीक सामने या कुछ पीछे स्थित करते हुए उस पर त्राटक कीजिये / जैसे ही यह प्रतिबिम्ब फीका या धुंधला पड़ जाये, नेत्रों को खोलकर बाहरी लौ पर त्राटक करना प्रारम्भ कीजिये। लाभ शारीरिक रूप से न्यून दृष्टि - दोष दूर करता है / मानसिक लाभ के रूप में इस अभ्यास से नाड़ियों की स्थिरता में वृद्धि होती है, अनिद्रा का निवारण होता है, अत्यधिक अशान्त मन भी तनाव - रहित हो जाता है। शारीरिक क्रिया होते हुए भी त्राटक का अभ्यास आध्यात्मिक शक्ति का विकास करता है। ध्यान की भाँति इसका अभ्यास साधना के रूप में करना चाहिए क्योंकि यह एकाग्रता को बढ़ाता है जो कि ध्यान की क्रिया का प्राणाधार है। नेत्र मस्तिष्क के द्वार हैं तथा उससे निकट रूप से सम्बन्धित हैं / जब 326 .