________________ नवमुखी मुद्रा नवमुखी मुद्रा विधि 'ध्यान के किसी भी आरामप्रद आसन में बैठ जाइये / धीमी एवं लम्बी श्वास लेते हुए शरीर शिथिल कीजिये। श्वास के अनुभव के साथ चेतना को मूलाधार से स्वाधिष्ठान, मणिपुर अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा, बिन्दु और सहस्रार तक पहुँचाइये। . अन्तर्कुम्भक लगाइये। योनि मुद्रा में वर्णित विधि से कर्ण, नेत्र तथा मुँह को बंद कर लीजिये। मूलबन्ध एवं वज्रोली मुद्रा का अभ्यास कीजिये। . कुम्भक की स्थिति में ही सहस्रार पर ध्यान कीजिये। संभावित अवधि तक कुंभक कीजिये / तत्पश्चात् नासिका को खोलकर धीरे-धीरे रेचक कीजिये / रेचक क्रिया के समय मूलबंध एवं वज्रोली मुद्रा को शिथिल कीजिये, परन्तु हाथों को यथास्थान रखिए। सहस्रार पर ही चेतना को बनाये रखिये। रेचक के बाद कुछ विश्राम कीजिये / क्रिया की पुनरावृत्ति कीजिये। समय बिना तनाव के जितनी देर संभव हो / टिप्पणी हमारे शरीर में नौ द्वार हैं जिनके द्वारा हम बाह्य जगत् के इन्द्रिय - ज्ञान का अनुभव ग्रहण करते हैं। ये हैं- दो कान, दो आँख..दो नासिका छिद्र, मुँह, गुदाद्वार एवं मूत्रेन्द्रिय / शरीर रूपी गुफा के ये नौ दरवाजे हैं। इन दरवाजों को बन्द कर इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाकर व्यक्ति आध्यात्मिक जागरणरूपी दसवें द्वार को भेदने में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार लौकिक चेतना को श्रेष्ठता प्रदान की जा सकती है / इस दसवें अपूर्व द्वार की स्थिति सिर के शीर्ष प्रदेश (सहस्रार) पर है / इसे 'ब्रह्म द्वार' या 'उच्च चेतना' भी कहते हैं। लाभ अधिक शक्तिशाली रूप में योनि मुद्रा के लाभों की प्राप्ति होती है। 322