________________ सावधानी . जठर एवं आँतों के खाली रहने पर ही अभ्यास कीजिये। सीमाएँ दिल की बीमारी में, जठर या पेट में घाव हो जाने पर अभ्यास वर्जित है। गर्भवती स्त्री के लिए भी अभ्यास वर्जित है। प्रारम्भिक एवं स्थानापन्न अभ्यास इस अभ्यास की तैयारी के लिए 'अग्निसार क्रिया' की जा सकती है। यह क्रिया उड्डियान बन्ध का स्थानापन्न अभ्यास भी है। लाभ इस अभ्यास में श्वास -पटल का ऊपर छाती - गह्वर तक खिंचाव होता है। उदरं के अंग भीतर मेरुदण्ड तक संकुचित किये जाते हैं। अतः इसका अभ्यास उदरस्थ एवं जठर की बीमारियों के लिए उपयोगी है। बदहजमी, अपचन, पेट के कीड़े, मधुमेह की अवस्था को दूर करता है / जठराग्नि को उत्तेजित करता है। उदर के सभी अंगों को व्यवस्थित कर उनकी क्रियाशीलता बढ़ाता है। यकृत, क्लोम, वृक्क, तिल्ली की मालिश करता है। नियमित अभ्यास से उनसे सम्बन्धित रोग दूर होते हैं। वृक्क एवं गुरदों के ऊपर स्थित उपवृक्क ग्रन्थि, को सामान्य बनाये रखता है जिससे कमजोर व्यक्ति को शक्ति प्राप्त होती है। परेशानी व चिंता की अवस्था में मन को स्थिरता प्रदान करता है। अनुकम्पी तंत्रिकाओं तथा परानुकम्पी तंत्रिकाओं को उत्तेजित करता है। इन तन्त्रिकाओं का सम्बन्ध शरीर के कई अंगों, विशेषकर उदर के अंगों से रहता है / फलतः इन अंगों के कार्यों में उन्नति होती है / अभ्यास द्वारा अंगों की प्रत्यक्ष मालिश होती है जिसके परिणामस्वरूप उनकी क्रियाशीलता में वृद्धि होती है। नाभि प्रदेश में स्थित मणिपुर चक्र के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। यह शरीर की प्राणशक्ति का केन्द्र है। अतः इस बन्ध के अभ्यास से प्राणशक्ति के बहाव में वृद्धि होती है। यह सुषुम्ना नाड़ी की ओर प्राण के प्रवाह को विशेष रूप से प्रोत्साहित करता है। . 294