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________________ 824 निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यासंवलिता [उत्तरतवं आर्द्रचर्मावनद्धाभगात्रता त्वचि गौरवम् // 5 // | स्पष्टगूढार्थविज्ञानमगाढमन्दचेतसाम् // मेदोगः स्थूलता मेहमस्थां स्तब्धत्वमस्थिगः। | यथाविधि यथाप्रश्नं भवतां परिकीर्तितम् // 16 // मज्जगः शुक्लनेत्रत्वं शुक्रस्थः शुक्रसंचयम् // 6 // सहोत्तरं त्वेतदधीत्य सर्व विबन्धं गौरवं चाति सिरास्थः स्तब्धगात्रताम् / ब्राझं विधानेन यथोदितेन // नायुगः सन्धिशूनत्वं कोष्टगो जठरोनतिम् // 7 // अरोचकाविपाको च तांस्तांश्च कफजान् गदान् / न हीयतेऽर्थान्मनसोऽभ्युपेताविण्मूत्रयोः साश्रययोस्तत्र तत्रोपदिश्यते // 8 // देतद्वचो ब्राह्ममतीव सत्यम् // 17 // उपतापोपघातौ च खाश्रयेन्द्रियगैर्मलैः ॥इति॥१२-१४॥ | इति सुश्रुतसंहितायामुत्तरतन्त्रे दोषभेदविकल्पो नाम षट्पष्टितमोऽध्यायः॥६६॥ अध्यायानां तु षट्षष्ट्या प्रथितार्थपदक्रमम् // एवमेतदशेषेण तन्त्रमुत्तरमृद्धिमत् // 15 // निबन्धान बहुशो वीक्ष्य वैद्यः श्रीभरतात्मजः / उत्तरस्थानमकरोत् सुस्पष्टं डल्हणो भिषक् // 15-17 // 1 अस्याग्रे 'राजमृगाङ्काभिधानेन बहवो रोगाः प्रदर्शिताः। इति श्रीडल्ह(ह)णविरचितायां निबन्धसंग्रहाख्यायां सुश्रुअन्यैस्तु मुनिभिरग्निवेशमेडजातुकर्णपराशरहारीतक्षारपाणिनिमिकाकायनगायेगालवप्रभृतिभिर्वहवो रोगाः कथिताः / तस्मात् प्रसङ्गं तव्याख्यायामुत्तरतन्त्रे षक्षष्टितमोऽध्यायः // 66 // संयम्य परित्यज्य हितमेवाचरणीयम् / इत्यधिकं पठ्यते कचि- / इति सौश्रुते आयुर्वेदशास्त्रे उत्तरस्थानं त्पुस्तके। समाप्तम् // 15-17 // समाप्तमिदं सुश्रुततन्त्रम् //
SR No.004403
Book TitleSushrut Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushrut Maharshi, Narayanram Acharya
PublisherChaukhambha Orientaliya
Publication Year
Total Pages922
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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