________________ (429) ईष उन्छे | शंसु स्तुतौ च कृषं विलेखन मिहं सेचने कष हिंसायाम् दहं भस्मीकरणे पृ. 54 . रह त्यागे शिष, जष, झप, वष, मष, रहु गतौ मुष, रुष, रिष, यूष, जूष, शष, दृह, दृह, वृह वृद्धौ चष हिंसायाम् बृह, बृहु शब्दे च वृष संघात च . उहृ, तृह, दुह अर्दने भष भत्सने अर्ह, मह पूजायाम् निषू, विषू , मिषू, निषू, उक्ष सेचने पृष, वृषू सेचने रक्ष पालने मृधू सहने च मक्ष, मुक्ष संघाते उष, श्रिपू, श्लिषू, पुषू, प्लुषू दाहे अक्षौ व्याप्तौ च घृष संघर्षे पृ. 16 हृषु अलीके तक्षौ; त्वक्षौ तनूकरणे पुष पृष्टौ णिक्ष चुम्बने भूष, तसु अलङ्कारे वक्ष रोषे लस श्लेषणक्रीडनयोः त्वक्ष त्वचने घस्लं अदने हसे हमने सूक्ष अनादरे पिस, पेस, वेस गतौ काक्षु, वाक्षु, माक्षु काङ्क्षायाम सं गतो शसू हिंसायाम् | इति परस्मैपदम् /