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________________ 78 : .: नरभवदिठूतोवनयमाला छे, केमके "लिंबडाना समागमथी मीठा आंबामां पण कडवास आवे छे" तो आ ठेकाणे आंबाना जेवा आगमो जाणवा अने लिंबडा समान पासत्यादि जाणवा, तो अहि अशुभ संसक्तो एटले प्राणातिपातादि पांच आश्रवमां अने ऋद्धिगारवादिकमां आसक्त होय, बहुकामी होय अने मोहथी घेरायेल होय ते अशुभसंसक्तो जाणवो, अने आगमना जाण अने शुद्धमार्गे चालनारा गीतार्थ प्रमुख जे संवेगी पुरुषो होय ते शुभ संसक्ता जाणवा पण अहिं कुगुरुना संबंधमां अशुभ संसक्तो ग्रहण करवो एज. 4 हवे यथाछंदन स्वरूप कहे छे-जे जैनसूत्रथी विरुद्धाचारे चालतो होय अने सूत्रविरुद्ध बोलीने उत्सूत्रनी प्ररूपणा करनार अने स्वेच्छाए वर्तनार होय ते यथाछंद कहेवाय छे, तेमां जे वचनो सूत्र अने परंपराथी मलतां न होय ते वचन उत्सूत्र कहेवाय छ, तथा गारवमां माच्यो रहे अने गृहस्थना करतां पण नीचकार्य करे, भोलालोकोने भरमाववा माटे पोतानां मतिकल्पित वचनो बोले, जेमके-हे भाइयो! आपणे एकली मुहपत्तिथी पडिलेहण करीशुं माटे चरवलानुं शुं काम छे, अने आपणे पात्रामां
SR No.004393
Book TitleNarbhavdrushtantopnaymala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1996
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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