________________ जैनगीता। बुद्ध्वा भवोदधिगता विविधा व्यथास्ता, जन्मान्तकाऽऽधिविविधामयजालजाताः / ज्ञात्वा तदन्तकरणं मुनिमार्गमेकं, सेव्याः० // 3 // पोतो यथा परतटं नयतीद्धभाण्ड, निर्यामकेण मतिसाधनसंयुतेन / धर्मे वरा भविजनोद्धरणैकलक्षाः , सेव्याः० // 4 // लोकं प्रदीप्तमखिलं जननानलेन, मृत्यारुजौ यममत्याश्च विबुध्य मत्या / शान्त्यै जिनेशगदितं वरधर्ममादुः, सेव्याः० // 5 // मातापिता सू नुरपारमोहा, अर्थ समस्तं वृजिनौघलातम् / गृह्णन्ति न प्रेत्य फलं विदन्तो, सेव्याः० // 6 // सर्वे जना ऐहिकसौख्यदुःख-समागमाना प्रचयात् प्रभीताः / नातीतभाविभ्य इमे तु तेभ्यः , सेव्याः० // 7 // अर्थाः सदा जनकुलागतनीतिरीत्या, . . रक्ष्या मनन्ति गृहिणो न च जानते ते / / दौर्गत्यपातिन इमे मुनिमिनिसृष्टाः, सेव्याः० // 8 // सर्वार्थसाधनमिदं वपुरक्षयं नो, यत्त्वेति नाशं बहुकारणाश्रितम् / वित्त्वा सुसंयमकृते परिरक्षयन्ति, सेव्याः० // 9 // मत्वाह . तत् प्रथमतो महिमानमुग्रं, धर्मस्य भागफलयुग्ममिहानगारः / सामान्यतः परिचरे(द्) भ्रमरोपमानः , सेव्याः० // 10 //