________________ संसार हेतु अथवा धर्म हेतु भी इन छ कायों का विनाश करने से सुख की जगह अहित और प्रबोधि की ही प्राप्ति होती है। यह वाक्यांश सभी (7) उद्देशों में दुहराया गया हैं। (2) एकेन्द्रिय जीवों के दुःख को उपमा द्वारा समझाया गया हैं-१. अन्धे एवं अंगोपांग हीन व्यक्ति को मारने पर, 2. किसी व्यक्ति के अवयवों का छेदन-भेदन करने पर, 3. किसी को एक ही प्रहार से मार देने पर, उन्हें वेदना होना जिस प्रकार हमारी आत्मा स्वीकार करती हैं, उसी प्रकार स्थावर जीवों को भी वेदना तो होती ही है किन्तु वे व्यक्त नहीं कर सकते / (3) अरणगार सदा सरल-माया रहित स्वभाव एवं प्राचरण वाला होता हैं। (4) भिक्षु जिस उत्साह और लक्ष्य से संयम ग्रहण करें, तदनुसार ही जीवन पर्यन्त पालन करें / लक्ष्य परिवर्तन या उत्साह / परिवर्तन रूप सभी बाधाओं को ज्ञान एवं वैराग्य के द्वारा विवेक . के साथ दूर करते हुए साधना करें। _ (5) एकेन्द्रिय जीवों के अस्तित्व की श्रद्धा करें किन्तु अपलाप न करें। इनका अपलाप करने पर स्वयं के अस्तित्व का अपलाप होता है जो कि स्पष्ट ही असत्य है / (6) बाह्य व्यवहार के अनेक चेतना लक्षण मनुष्य के समान ही वनस्पति में भी पाए जाते हैं जिसमें से नव समान धर्म पांचवें उद्देशक में कहे हैं। (7) त्रस जीवों के शरीर एवं अवयवों की अपेक्षा 18 पदार्थ प्राप्ति हेतु लोग उनकी हिंसा करते हैं और कई लोग केवल वैर भाव से या निरर्थक अथवा भय के कारण भी उनकी हिंसा करते हैं।