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________________ करे उनका परिकर्म न करें। जीर्ण हो जाने पर उनका परिष्ठापन कर अचेल रहे, परीषह आदि सम्यग् सहे। . (2) किसी रोग से कभी स्वयं गोचरी जाने में असमर्थ हो तो भी दूसरों से (गृहस्थों से) न मंगवावे न इनसे ले / पाहार के सिवाय अन्य भी कोई वस्तु न लें / स्वस्थ होने पर स्वयं लावे / (3) वैयावृत्य नहीं करने कराने सम्बन्धी भी भिक्षु अभिग्रह धारण कर सकता है / यह वैयावृत्य पारस्परिक व्यवहार सम्बन्धी है। रोगांत्कं आदि में स्वयं सेवा करने का त्याग किया जा सकता है किन्तु अन्य रूग्ण की सेवा का त्याग नहीं किया जाता। (4) जिनाज्ञा अनुसार एवं अपनी समाधि अनुसार ग्रहण की . हुई प्रतिज्ञाओं का सम्यग् अाराधन करें एवं मृत्यु निकट जानकर भक्त प्रत्याख्यान पण्डित मरण स्वीकार करें। छट्ठा उद्देशकः (1) भिक्षु एक वस्त्र (आठ मास तक) धारण करने की प्रतिज्ञा करे जीर्ण हो जाने पर निर्वस्त्र रहे। ... (2) अकेला भिक्षु सदा एकत्व भाव में रमण करें। (3) भिक्षु आहार के प्रति रसास्वादन वृत्ति न रखें / (4) श्रमण जब शरीर की दुर्बलता जान लें कि यह संयम पालन के अक्षम हो रहा है तो तण आदि की याचना कर योग्य स्थान में इगित रमण संथारा ग्रहण करे / एवं उसकी विधिपूर्वक आराधना करें। सातवां उद्देशकः-- (1) भिक्षु अचेल होने की प्रतिज्ञा धारण करे अथवा लज्जा निवारणार्थ एक चोलपट्टक (कटिबंधनक) धारण करें / शीत उष्ण प्रादि कष्ट सम्यग् सहे / उसके जीर्ण हो जाने पर अचेल भी रहे /
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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