________________ गोगिणी प्रव्रज्या [75] पुणरवि मणुस्सख्वी तणभारेणं तु विसति तं गाम / दटुं लवे पुराणो किं इच्छसि अप्पणो णासं // 676 // जं तणभारेण तुमं विससि पलित्तं ततो लवे देवो / एव तुमं जाणंतो जरमरणपलित्तसंसारं // 677 // पविसंनिच्छसि णासं मुंचसि जं दुक्खलद्धिय दिक्खं। अगणितो वच्चति घरं गतस्स रोगं पुणो कुणति // 678 // पुणराव नहंव दिक्खा उप्पब्वइए य लघरहुतम्मि / संपट्ठिए अडवीए तस्स पहे वंतरप्पडिमं // 679 / / काउं अञ्चणदेवी अचितमहितो तु पडति हेट्टमुहा। पुणरवि समवेतुं पहवियचिओ सो पुणो पडितो 80 एवं पुणावि अच्चियमहितीवित बहुसो पडे जाहे। लवनि ततो दुव्योही किंवरठाणे ण ठाए मो // 681 // देवाह जहासि तुमं वरठाणेवि ठविउ एव। पध्वज मोत्तणं णरगनरगादहठाणं पुगरवि य अभिलससि // 682 // लवति पुराणो को तुम देवो दंसेति मूगरूवं से। देवत्तं पुव्वभवं संगारं वावि संभारे // 683 // तो संभरितुं जाति संवेगमुवागतो भणति देवं / इच्छामो अणुसहि जातो थिरो संजमे ताहे। दा 684