________________ [74] पञ्चकल्प-भाष्ये जदि वहति सत्थकोसं भमति मए यावि जदिसमं एसो तो णीरोगु करेमी पडिवण्णो कतोय णीरोगो // 667 // घेत्तूण तं पयाओ गुरुगं से सत्थकोसगं दावे / तं वज्जभारगुरुगं बेती ण तरामि वोढुं जे // 668 // दंसेति साधुरूवं बेति जति णिक्खमाहि तो तेऽहं / मुंचामि विमुंचेमि य रोगा पडिवण्ण तो मुको 669 णिक्खंते तो तम्मी देवोवि ततो तु सालयं पत्तो। कालेणुप्पवइत्तं सघरं संपट्टितो अह सो // 670 // देवेण पलायंती दिट्टो विगुरुविऊण तो अडविं / काऊ मणुस्सरूवं अह अडविं पंठितो तत्तो !!671 // लवति ततो दुब्बोही किं इच्छसि अप्पगं विणासेतुं। जं जासि अडविहुत्तं देवोऽवि ततोऽणु पच्चाह / / 672 // तं पुण विजाणमाणो णरगादीदुक्खसंकिलेसं तु। किं णिग्गंतुं तत्तो पुणरवि दुक्खाडविमतीसि // 73 // अगणितो तं वयणं सघरं अह आगतो ततो सोतु। रोगाणं साहरणं भूओ वेज्जागमो दिक्खा // 674 // कालेण केणइ पुणो लिंग मोत्तूण पट्टितो सगिहं / देवेण पुणो दिट्ठो गामपलित्तंतरा कुणति // 675 //