________________ गणस्याऽनुशास्तिः [153 ] पुव्वुवहिस्स विवेगं काउं गेण्हति अहागडं उवहिं। अभिगहियमेसणाहिं उप्पादेयं सयं चेव / दारं 1374 गणसण्णा स करेती जो जहिं ठाणठितो तु पुव्वम्मि। तं तत्थेव ठवेती गणणिक्खेवं च इत्तरियं // 1375 // सेज्जाए अपरिभुत्ते ठायति तहियं तु एगदेसम्मि / दारं संथारं उप्पादे अहाकडं एसणविसुद्धं / दारं // 1376 // विगतीओ य ण गेण्हति गेण्हति भत्तं च सो अलेवाडं। दारं ! इय भाविउ हु जाहे ताहे ठवती गणहरं तु॥ गणहर गुणसंपण्णं बामे पासम्मि ठावइत्ताणं / चुण्णाति छुहति सीसे सचित्तादी य अणुजाणे / दारं // 1378 // ठावेऊण गणहरं आमंतेऊण तो गणं सव्वं / तिविहेण खमावती सबालवुड्ढाउलं गच्छं // 1379 // संवेगजणियहासा सुत्तत्थविसारता पयणुकम्मा / चिंतेति गणं धीरा णिता वि हु ते जिणाणाए // 1380 // णिद्धमहुराति सेसं परलोगहितं गुरूण अणुरुवं / अणुसहि देंति तहिंगणाहिवतिणो गणस्सेवं // 1381 // तवणियमसंपउत्ता आवस्सगझाणजोगमल्लीणा / संजोगविप्पओगे अभिग्गहा जे समत्थाणं // 1382 / /