________________ 78 सुभाषितसूक्तरत्नमाला कुणउ तवं पालउ संजमं पढउ सयलसत्थाई / जाव न झायइ अप्पा ताव न मुक्खो जिणो भणइ // 17 // ‘जा दव्वे होइ मई, अहवा तरुणीसु रूववन्तीसु / सा जइ जिणवरधम्मे, करयलमज्झट्ठिया सिद्धि // 18 // संयमाय श्रुतं धत्ते, नरो धर्माय संयमम् / धर्म मोक्षाय मेधावी, त्रयं व्यर्थ विपर्ययात् // 19 // तत्त्वार्थचिन्तनेनाऽत्र, नाऽन्यः कोऽप्यात्मनो रिपुः / आत्मैवात्मनि शत्रुत्वं, आत्मना याति निश्चितम् // 20 // उत्तमानां जरा स्वान्ते, मध्यमानां च मरतके / अधमानां शरीरेषु, न नीचानां कुतश्चन // 21 // उत्तमा जन्मतो वृद्धा, मध्यमा मस्तके पलिः। अधमाः शरीरे श्रान्ता. नीचा नैव कदाचन // 22 // आत्मानं आत्मना वेत्ति, मोहत्यागाद् य आत्मनि / तदेव तस्य चारित्रं, तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् // 23 // कर्माहितमिह चामुत्र, चाधमतमो नरः समारभते / ३हफलमेव त्वधमो, विमध्यमस्तूभयफलार्थम् // 24 // परलोकहितायैव, प्रवर्तते मध्यमः क्रियासु सदा / मोक्षायैव तु घटते, विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः // 25 // न शब्दशास्त्राभिरतस्य मासो, न बाह्यकाडम्बरबन्धुरस्य / न भोजनाच्छादनविस्मितस्य, न लोकचित्तग्रहणे रतस्य // 26 //