________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 173 तत्कालीन युग के सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए ये जैन पुरालेख उल्लेखनीय है। परंपरा के अनुसार इनका प्रारंभ 'जिन' को आहवान करने से होता है। वर्धतां वर्धमानेंदोर वर्धमान गणोदधेः शासनं नाशित रिपोरभासुरं मोह शासनी (गोकाक पत्र ई 532- El. Vol. XXI No.pp. 289-92) वर्धमान का नष्टप्राय होता उज्वल शिलालेख, जो कि वर्धमानगण का चंद्रमा है जो अपना सार वैभव ले गया। विस्तीर्ण ज्ञान नेत्रेण यः पश्यति जगत त्रयम स जयति अमरेन्द्रनः शांतिदस-शांतिर ईश्वरः॥ (1) स्वर्गापवर्ग सौख्यानि देहिनो येन भंजते। सधर्मो जयति श्रेयान सत्य निष्ठस-सदा-अर्हतम्॥ (2) (हूल्लि पत्र, C.E. 600) शांतिनाथ जिन अपनी सर्वज्ञ व्यापक नेत्रों से तीनों जगत को ग्रहण करता है और वह शाश्वत ईश्वर शांति प्रदान करता है। (1) ___ धर्म, शाश्वत सिद्धान्त तथा अर्हतों का विश्वास, आध्यात्मिक सदगुणों तथा सत्य में गहरी जड़ें जमा चुका है। जिसके अभ्यास से मानवजाति स्वर्ग के सुख तथा परम मुक्ति को प्राप्त करता है। (2) जयत अतिशय जिनैर-भासुरसुर वंदितः श्रीमान जिन पतिः श्रिश्ठेर-आदेः कर्तादयो दयः। (SII. Vol. XX. No. 3 D. स. 630 Puligere: KI. Vol. V No. 3 Gadag Dt. Shirahatti TK.) भगवान जिन विजयी हों, जो जिन (महानता) से दमक रहा है, जिसे देवता प्रणाम कर रहे हैं, जो कि प्रथम सृजन का सृजनकार है तथा जो करुणाकर है। जयति भगवान- जिनेंद्रोवीतजरा मरण जन्मनो यस्य। ज्ञान समुद्रांतरग्गतम् अखिलन जगद अंतरीपं-इव।। (El. Vol. VI. D. F. 634. Aihole inscription of Ravikirti) पवित्र जिन की विजय हो, जो वृद्धत्व, मृत्यु तथा जन्म से परे है, जिसके ज्ञान के सागर में सारा जगत एक द्वीप की तरह समा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org