________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 139 शिल्पाकृतियाँ लगती हैं। आपको इस बात का भी स्मरण होगा कि कन्नडभाषा के अनुसार ध्यान-श्लोक हंस को दो हाथों वाली सिद्धायिका का वाहन मानता है। हंस का वाहन देवी सरस्वती की याद दिलाता है और श्वेतांबर तथा दिगंबर दोनों पंथों में सिंहवासिनी देवी सिद्धायिका को सरस्वती देवी से जुड़े दो या अधिक प्रतीकों से संबंधित दिखाया गया है। इस प्रकार वसुनंदी तथा आशाधर के अनुसार पुस्तक या श्वेतांबर परंपरा में वीणा तथा दिगंबर परंपरा में मलादेवी का मंदिर के ठाँचे का विचार भी जरूरी है। सिंह भी सरस्वती का वाहन है जो ब्राह्मणी परंपरा में वाग्देवी है। सिद्धायिका का वाहन सिंह का होना संभवतः महावीर के चिह्न सिंह ईस से प्रभावित रहा होगा, किंतु अन्य किसी तीर्थंकर की यक्षीनियों के साथ ऐसा नहीं था। (शाह यू.पी. जैन रूप मंडन 1987 : 287) सिद्धायिका की शिल्पाकृति शिल्प सातवीं सदी का न होकर आठवीं सदी के प्रारंभिक दशकों का रहा होगा। चरंतीमठ अथवा जुडवा जैन मंदिर कल्याण चालुक्य शासनकाल के जमपरय्या तथा जतियक्का के पुत्र केशवय्या शटि ने बनवाया था। हळ्ळूरू जिनालय के समान ही सेट्टव्व जिनालय राष्ट्रकूटों के प्रारंभिक काल में बनवाया गया था। सेट्टगेव्वा. बसदी के पास एक और एकदम सामान्य सा जिनालय दसवीं सदी के प्रारंभ का शिल्प है। अतः ये मंदिर जो जैनों से जुड़े हैं उनकी चर्चा इस पुस्तक में नहीं की गई है। मेगुडी को मुळवळ्ळि, गंगावूर, मच्चनूर तथा वेळमळटिकवाडा ग्राम तथा ऐहोळे के पास की जमीन दान में दी गई थी। मेगुडी शब्द की व्युत्पत्ति उसके दो मंजिला संरचना तथा उसके भौगोलिकता पर आधारित है। कारण यह ऊपर की ओर उठे मैदानी भाग पर होने के कारण तथा वह दो मंजिला मंदिर होने से लोग उसे मेगुडी कहते हैं, अर्थात् पर्वत पर मंदिर तथा ऐसा मंदिर जिसके नीचे एक अन्य मंदिर का होना है। कन्नड शब्द मेगुडी मेल तथा गुडी के योग से बना है। मेल का अर्थ है ऊपर तथा गुडी का अर्थ है मंदिर / अतः मेलगुडी का संक्षिप्त रूप मेगुडी है। तथापि कवि रविकिर्ती ने अपने पुरालेख में इस मंदिर को जिनेंद्र भवन के नाम से संबोधित किया है। जिनेंद्र भवन (मेगुडी) उत्तरीय सांदार अथवा भ्रमंतिका, जिनेंद्र भवन समान्यतः मेगुडी के नाम से जाना जाता है, जो ऐहोळे के शिखर पर ई 635 में विद्वान कवि रविकिर्ती के द्वारा बनवाया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org