________________ द्वेष का स्वरूप समझने से आधि (मानसिक पीडा), शरीर को अपना समझने से व्याधि (शारीरिक पीड़ा) और पर-पदार्थ, घर, पुत्र, पौत्रादिक को अपना समझने से उपाधि (बौद्धिक पीड़ा) होती है। यह आधि, व्याधि और उपाधि समाधि की घातक हैं। अतः इनका त्याग कर समाधि धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। मरण अनेक प्रकार के हैं, परन्तु उनमें पाँच मुख्य हैं- बाल-बाल मरण, बाल मरण, बालपण्डित मरण, पण्डित मरण और पण्डित-पण्डित मरण / मिथ्यादृष्टि का मरण बाल-बाल मरण है, इसमें सल्लेखना नहीं हो सकती; क्योंकि इसको आत्मा और अनात्मा का भेदज्ञान नहीं है। बाल मरण चतुर्थ गुणस्थानबर्ती के होता है, जहाँ ऐसी पर्याय है कि त्याग करने का सामर्थ्य ही नहीं है- जैसे देव, 'नारकी, चतुर्थगुणस्थानवर्ती अथवा जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु, तिर्यंचायु या मनुष्यायु का बन्ध कर लिया है, उनके देशव्रत व सकल संयम धारण करने का सामर्थ्य नहीं होता। ऐसे प्राणी चतुर्थ गुणस्थान में मरण करते हैं, वह बाल मरण है। पंचम गुणस्थानवर्ती का मरण बालपण्डित मरण है क्योंकि इसमें एकदेश व्रत है एकदेश अव्रत है, सम्यग्दर्शन सहित है, अतः बालपण्डित मरण है। सकल संयमी का मरण पण्डित मरण है। केवली का देह त्याग करना पण्डित-पण्डित मरण है। सल्लेखना मरण के अधिकारी दो ही हैं- बालपण्डित मरण और पण्डित मरण वाले। पण्डित मरण के तीन भेद हैं- 1. प्रायोपगमन मरण, 2. इंगिनी मरण और 3. भक्त-प्रत्याख्यान। प्रायोपगमन मरण :- दुस्तर असाध्य रोग के उत्पन्न होने पर, श्रामण्य की घातक अतिशय, वृद्ध अवस्था आ जाने पर, निष्प्रतिकार्य देव, मानव और तिर्यंच कृत उपसर्ग होने पर, आँख, कान या जंघा बल के अत्यन्त क्षीण होने पर साधक आहारपानी का क्रमशः या सम्पूर्ण त्याग करके समाधि मरण करने में तत्पर होता है। इस प्रायोपगमन मरण में स्व-पर के द्वारा शुश्रूषा का परिहार करता है। वह जिस स्थान में खड्गासन या पद्मासन से स्थित होता है, वैसे ही मरण-पर्यन्त स्थित रहता है। इंगिनी मरण :- आहार का त्याग तो प्रायोपगमन के समान ही है परन्तु इस मरण में अपने द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है अर्थात् अपनी वैयावृत्य स्वयमेव करता है। चलना, बैठना, मल-मूत्र आदि क्रिया में दूसरे का सहारा नहीं लेता है, परन्तु स्वयमेव आहारादि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। भक्तप्रत्याख्यान मरण :- भक्त का अर्थ आहार है, जो खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय -चार प्रकार का होता है। प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है। मरण का समय निकट जानकर चारों प्रकार के आहार का त्याग करके समता भाव से शरीर छोड़ा जाना भक्तप्रत्याख्यान मरण है। 9000 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004