________________ सल्लेखना और समाधिमरण 2 प्रो. प्रेम सुमन जैन जैन नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही नहीं, वरन् उसमें जीवन की कला के साथ मरण की कला पर भी विचार किया गया है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से किस प्रकार जीवन जीना चाहिए- यही महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन् किस प्रकार मरना चाहिए- यह भी महत्त्वपूर्ण है। मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी जीवन का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना होती है वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है। संस्तारक प्रकीर्णक में उपलब्ध स्कन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना करने वाला महान् साधक जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने सहचारी चार सौ निन्यानवे साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृतपान कराया, वही साधक स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने साधनापथ से विचलित हो गया। मृत्यु इस जीवन की साधना का परीक्षा-काल है। मृत्यु इस जीवन में लक्ष्योपलब्धि का अन्तिम अवसर और भावी जीवन की कामना का आरम्भ-बिन्दु है। इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी अंग है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है। संसरण-शील संसार में जन्म लेने वाले जीव का मरण निश्चित है। यद्यपि आत्मा अजर, अमर और अजन्मा है, वस्तुतः उसका न जन्म है और न मरण, फिर भी संसारावस्था में शरीर-प्राप्ति जन्म और शरीर छूटना मरण कहा जाता है। मरण को अज्ञानी बुरा मानता है। अज्ञानी पर्यायदृष्टि प्रधान होने से प्राणवियोग रूप मरण पर दुःख करता है, किन्तु ज्ञानी द्रव्यदृष्टि की प्रधानता से प्राणवियोग या शरीर छूटने में भी प्रसन्न रहता है, सदा समरस रहता है। वह विचार करता है कि मैं त्रिकाल सत्य हूँ। इस शरीर से पूर्व भी मेरी सत्ता थी, इस शरीर में भी है और इस शरीर के छूटने पर भी मैं रहूँगा। मैं सुकृताचरण से कृतकृत्य हो चुका हूँ, अतः 8800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004