________________ बाहर से शरीर को और भीतर से कषायों को बढ़ानेवाले कारणों को घटाते हुए भलेप्रकार से लेखन करना, कृश करना सल्लेखना है। * सल्लेखना आत्महत्या नहीं, क्योंकि उसमें प्रमाद एवं कषाय का अभाव है। सल्लेखना बलात नहीं कराई जाती। जब कोई असाध्य रोग, कोई प्रतिकार रहित उपसर्ग, बुढ़ापा, दुर्भिक्ष, आदि की स्थिति में धर्म साधन सम्भव नहीं रहता, तब साधक स्वेच्छा से काया एवं कषायों को कृश करता हुआ देह एवं देह के सम्बन्धियों से ममत्व कम करते हुए स्वेच्छा से धीरे-धीरे आहार आदि को क्रमशः घटाते हुए समताभाव से शरीर छोड़ता है। प्रीतिपूर्वक प्रसन्नचित्त से बाह्य में शरीरादि संभोगों को एवं अन्तरंग में राग-द्वेष आदि कषाय भावों को क्रमशः कम करते हुए परिणामों में शुद्धि की वृद्धि के साथ शरीर का परित्याग करना ही सल्लेखना है। सल्लेखना में जहाँ काय व कषाय को कृश करना मुख्य है वहीं समाधि में शुद्धात्म स्वरूप का ध्यान प्रमुख है। समाधि में त्रिगुप्ति की प्रधानता होने से समस्त विकल्पों का नाश होना प्रमुख है। __अनेक प्रकार से शारीरिक या द्रव्य सल्लेखनाविधि को करते हुए साधक एक क्षण के लिए भी परिणामों की विशुद्धता को नहीं छोड़ता। कषाय से कलुषित मन में परिणामों की विशुद्धि नहीं होती। जीवन में पर के प्रति समरसी भाव या साम्यभाव कृश हुए बिना शरीर को कृश करने का कोई अर्थ नहीं है। कषायों के साथ काय को कृश करना ही सल्लेखना है। केवल काय को कृश करना तो आत्मघात है, सल्लेखना नहीं। सल्लेखना के भेद- (1) नित्य मरण - प्रतिसमय आयुकर्म के क्षय के साथ मृत्यु की ओर जानेवाले साधक अपने में सदैव सावधान रहते हैं और विवेकपूर्वक यथोचित द्रव्य-सल्लेखना करते हुए विकारी परिणाम से बचते हैं - यही नित्य मरण सल्लेखना है। (2) तद्भव मरण -- भुज्यमान (वर्तमान) आयु के अन्त में शरीर और आहार आदि के प्रति निर्ममत्व होकर समभाव से शरीर त्यागना तद्भव मरण सल्लेखना है। इसके सिवा काय सल्लेखना एवं कषाय सल्लेखना भी सल्लेखना के दो भेद हैं (1) काय सल्लेखना - काय को कृश करना एवं परीषह सहकर शरीर को सहनशील बनाना काय सल्लेखना है। काय को पुष्ट करने से, आरामतलब बनाने से इन्द्रियों के विषयों में अधिक प्रवृत्ति होती है, आत्मा मलिन होता है, काम वासना बढ़ती है, निद्रा-प्रमाद-आलस्य आता है। वात-पित्त-कफ आदि रोग हो जाते हैं। अतः समाधिधारक को कायक्लेश तपश्चरण द्वारा काय को कृश करना आवश्यक है। आचार्य कहते हैं कि साधक जैसी आयु की स्थिति जाने, तदनुसार देह से 82 00 ___प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004