________________ या दूसरे, तीसरे, चौथे समय में अपने पूर्वबन्ध स्थान में दूसरा शरीर ग्रहण कर लेता है अर्थात् गर्भ, उपपाद और सम्मूर्छन जन्म में से योनि अनुसार पहुँच जाता है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल -इन छह लेश्याओं में पूर्व तीन अशुभ और उत्तर तीन शुभ लेश्यायें हैं। लेश्या यानि कषाय युक्त मन-वचन-काय की प्रवृत्ति / देवगति में तीन शुभ लेश्या और नरक में तीन अशुभ तथा तिर्यंच मनुष्य में छहों लेश्या होती है। प्रत्येक लेश्या के तीन-तीन तारतम्य अपेक्षा अंश होते हैं। इनके नाम पृथक-पृथक् हैं। इस तरह परिणामों की डिग्री के अनुसार जीव निश्चित स्थान पर स्वयमेव पहुँच जाता है। यहाँ लिखने का अभिप्राय यह है कि हमें अभी से हमेशा सावधान रहते हुए ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए कि हम दुर्गति में न पहुँच जावें। मालूम नहीं कब आगामी आयुबन्ध हो जाये, क्योंकि तृतीय भाग तो हमें ज्ञात नहीं हो सकता। जीवन का प्रत्येक क्षण शान्त परिणामपूर्वक व्यतीत करना हमारा कर्त्तव्य है। इसके लिए हमारे आचार-विचार सब अच्छे होने चाहिए। ___ सल्लेखना और समाधिमरण की सफलता हमारे पवित्र जीवन पर निर्भर है, क्योंकि जीवन जैसा व्यतीत किया होगा, अन्तिम समय वैसे ही परिणाम होंगे। एक बार जिस गति का आयुबन्ध होगा, वह गति परिवर्तित नहीं होगी। महाराज श्रेणिक ने यशोधर मुनि के गले में मृत सर्प डाला था, 7वें नरक की आयु बँधने पर महावीर के सम्पर्क में आने पर प्रथम नरक की आयु रह गई, किन्तु नरक गति नहीं छूटी। . ___ मृत्यु के पूर्व संसार-शरीर-भोगों के चिंतन के साथ बारह भावना तथा आत्मा का चिन्तन किया जाये। जहाँ तक हो विवेकी व्यक्ति स्वयमेव शान्तिपूर्वक आत्मस्थिरता धारण करे। यह उसका मृत्यु-महोत्सव है -ऐसा मानने से वीरता के भाव जागृत होंगे। “अन्तक सौं न छूटै निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजै। चाहत है चित मैं नित ही सुख, होय न लाभ मनोरथ पूजै।। ___ तो पन मूढ़ बँध्यो भय आस, वृथा बहु दुःखदवानल भूजै। छोड़ विचच्छन ये जड़ लच्छन, धीरज धारि सुखी किन हूजै।।" यह निश्चित है कि मृत्यु से बचा नहीं जा सकता है, तथापि अज्ञानी प्राणी निरन्तर भयभीत बना रहता है। वह सदा सुखसामग्री की इच्छा करता रहता है, किन्तु न तो उनकी प्राप्ति होती है और न कभी उसके मनोरथ पूरे होते हैं। परन्तु फिर भी वह भय और आशा से बँधा रहता है और व्यर्थ ही दुःखरूपी प्रबल आग में जलता रहता है। हे विचक्षण ! तुम इन मूर्खता के लक्षणों को | त्याग कर एवं धैर्य धारण कर सुखी क्यों नहीं हो जाते हो?-महाकवि भूधरदास प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 1079