________________ त्यागने की भावना भानी चाहिए। समाधिमरण रूप पण्डित मरण कोई एक दिन या कुछ समय का पुरुषार्थ न होकर सम्पूर्ण जीवन की साधना का फल होता है। इसके लिए मनुष्य को निरन्तर शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय से आत्महित और परहित करने की बुद्धि आदि गुण प्रकट होते हैं। भगवती आराधना का निम्न पद्य मननीय है :.. “आदहिदपइण्या भावसंवरो णवणवो य संवेगो। णिक्कंपदा तवो भावणा य परदेसिगत्तं च / / 99 1 / " 1. जिनागम का अभ्यास करने वाले को आत्महित का ज्ञान होता है 2. पाप कर्मों का संवर होता है 3. नवीन-नवीन संवेग भाव उत्पन्न होता है 4. मोक्षमार्ग में स्थिरता आती है 5. तपस्या की वृद्धि होती है 6. गुप्ति पालन में तत्परता आती है 7. इतर भव्य जीवों को उपदेश करने की सामर्थ्य उत्पन्न होती है। ये सात गुण जिनागम के स्वाध्याय करनेवाले की आत्मा में प्रकट होते हैं। -(संयम प्रकाश : पूर्वार्द्ध, द्वितीय भाग, पृष्ठ 166) जैनधर्म भाव प्रधान धर्म है। इसकी उपलब्धि तभी होती है जब अंतरंग भावों सहित वीतरागी जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर त्रियोग एवं नव भावपूर्वक अधः कर्म प्रवृत्ति से निवृत्ति लेकर शुद्धात्मा की ओर जाग्रत रहें अन्यथा जिनदीक्षा धारण कर प्राणी संयम व्रत पालने की असमर्थता होने पर, ईर्या समिति की उपेक्षा कर उन्मार्ग की प्रवृत्ति से जिनेश्वरी दीक्षा प्रश्नचिह्नित होती है और दीक्षा का उद्देश्य विफल हो जाता है। सभी भव्य आत्माएँ जिन आज्ञानुसार प्रवृत्त होकर वीतराग मार्ग को प्रकाशित करें- यही मंगल भावना है। मृत्यु से बचने का उपाय मृत्योर्बिभेषि किं मूढ़ ! न स भीतं विमुचति। अजातं नैव गृह्णाति कुरु यत्नमजन्मनि।। अर्थ :- हे मूढ़ ! क्या डरने से कोई मृत्यु को टाल सका है? मृत्यु से बचने का उपाय तो एक ही है कि जन्म ही न हो। जब जन्म नहीं होगा तो मृत्यु किसकी? नित्य मरने और जन्म लेने वाले संसारी इस बात से चौंक उठते हैं कि क्या जन्म लेना और न लेना अपने वश में है? अध्यात्मशास्त्रों का कथन है कि हाँ ! जन्म न लेना अपने वश में है। 7600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004