________________ 3. भव मरण - जिसके आने पर हमारा वर्तमान जीवन समाप्त हो जाता है, इस देह के साथ हमारी यात्रा रुद्ध हो जाती है, उसमें पूर्ण विराम लग जाता है, उसे भव-मरण कहा गया है। यह हर जीवन के अन्त में निश्चित रूप से आता है। इस मरण से हमारे इस जन्म के सारे नाते-रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। यहाँ आकर हमने जो भी जोड़ा या समेटा है, वह सब कुछ यहीं छोड़कर हमें किसी और योनि में जन्म लेने के लिए परलोक की ओर जाना पड़ता है। इस मरण को रोकने या टालने का किसी के पास कोई उपाय नहीं है। पशु-पक्षी, मनुष्य, दानव और देव, भव मरण के सामने सब विवश और निरुपाय हो जाते हैं। त्रैलोक्य में कोई देहधारी इससे बच नहीं सकता। मृत्यु इसी भवमरण का दूसरा नाम है। मृत्यु की पहचान - मृत्यु को झांसा देकर अमर बन जाने की असम्भव प्रत्याशा ने हमारी दृष्टि को जीवन और मृत्यु दोनों के बारे में अनगिनत भ्रान्तियों से भर दिया है। मृत्यु को समझने से हमें जीवन की सम्पूर्णता को समझने में सहायता मिलेगी। मृत्यु को स्वीकार करने की मानसिकता हमें जीवन को अनोखे दृष्टिकोण से देखने और स्पष्टता से समझने की क्षमता देगी और उसे पूरी समग्रता में जीने की ललक, जिसे जिजीविषा कहा गया है, हमारे भीतर जागृत करेगी। मृत्यु के प्रति हमारे मन में मैत्री-भाव उत्पन्न हो सके, उसके प्रति हमारा भय, हमारी चेतना पर छाया उसका आतंक, यदि समाप्त हो सके तो हमारे जीवन की दिशा बदल जायेगी। उसी क्षण जीवन का लक्ष्य और जीने की सार्थकता दीप-शिखा की तरह हमारे सामने झिलमिलाने लगेगी। नकारात्मक नहीं है मृत्यु - मृत्यु हमेशा जीवन पर नकारात्मक प्रभाव ही छोड़ती हो -ऐसा नहीं है। सत्य-शोधन की प्रज्ञा जिनके पास है, ऐसे कुछ लोगों को मृत्यु का दर्शन, जीवन के सम्यक-प्रयोजन को समझने का निमित्त भी बन सकता है। महात्मा बुद्ध ने जीवन में पहली बार एक शव के दर्शन मात्र से विश्वव्यवस्था के यथार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस घटना ने राजकुमार गौतम बुद्ध के जीवन की दिशा ही बदल दी। ____ मौत का भय मौत से अधिक डरावना होता है, किन्तु जो मृत्यु से भयभीत रहता है वह दिन में हजार बार मरता है, और जिसने मृत्यु के भय को जीत लिया वह जीवन में केवल एक बार मरता है। मृत्यु आकर भी केवल उसकी देह का अवसान करा पाती है, उसकी आत्मा को संक्लेशित या दुःखी नहीं कर पाती। जन्म और मरण दोनों एक ही धागे के दो छोर हैं। दोनों एक-दूसरे से गुँथे हुए, जुड़वाँ भाई की तरह अभिन्न हैं। दोनों अवश्यम्भावी और अटल हैं। दोनों का कोई उपचार नहीं। हाँ, बीच में जो मध्यान्तर है, जो जीवन है, वह बहुत कुछ हमारे 6400 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004