SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. 169 202 30. सल्लेखना की विधि पं. मनोहरलाल शास्त्री, एटा 147 31. सल्लेखना आत्मरक्षा है, आत्महत्या नहीं पं. फूलचन्द जैन बरैया ... 151 32. सल्लेखना एवं भारतीय दण्ड-विधान श्री अनूपचन्द्र जैन एड., फिरोजाबाद 155 33. समाधिमरण पं. राकेश जैन शास्त्री, दिल्ली 162 34. क्षपक समाधि 35. समाधिमरण-पाठ पं. दौलतराम कासलीवाल | 188 36. समाचार-दर्शन मैं नमों नगन जैन जन, ज्ञान ध्यान धन लीन। मैन मान बिन दान धन, एन हीन तन छीन। –(पं. टोडरमल, मोक्षमार्ग प्रकाशक, प्रस्तावना, पृष्ठ 34) मैं ज्ञान और ध्यानरूपी धन में लीन रहने वाले, काम और अभिमान से रहित, मेघ के समान धर्मोपदेश की वर्षा करने वाले, पापरहित (निष्पाप) क्षीणकषाय, नग्न दिगम्बर जैन साधुओं को नमस्कार करता हूँ। मुक्तिश्रियः प्रणयवीक्षणजालमार्गाः, पुंसां चतुर्थपुरुषार्थतरुप्ररोहाः। निःश्रेयसामृतरसागमनाग्रदूताः, शुक्लाः कचा ननु तपश्चरणोपदेशाः॥ - -(यशस्तिलकचम्पू 2-104, पृष्ठ 225) ये धवल केश तुम्हें तपश्चर्या का पाठ पढ़ाने आये हैं। ये मुक्तिलक्ष्मी के दर्शन के झरोखे के मार्ग तुल्य हैं, चतुर्थ-पुरुषार्थ मोक्षरूपी वृक्ष के अंकुर समान हैं, परमकल्याणरूप निर्वाण के आनन्दरस के आगमनद्योतक अग्रदूत हैं। रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्, पर्युत्सुर्कीभवति यत्सुखिनोऽपि जन्तुः। तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वम्, भावस्थिराणि जन्मान्तरसौहृदानि॥ ___-(महाकवि कालिदास, अभिज्ञानशाकुन्तलम् 5-140) अर्थात् कभी-कभी सुखी प्राणी भी मनोरम पदार्थों का दर्शन; मधुर शब्दों का श्रवण करते हुए भी अत्यन्त उत्कंठित हो जाता है; इससे प्रतीत होता है कि वह अन्तःकरण में अंकित पूर्वजन्म के प्रेम को स्मरण करता है। हिमालयस्य ऋषीनुद्दिश्य वचः अद्यप्रभृति भूतानामभिगम्योऽस्मि शुद्धये। यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते॥ ___ -(महाकवि कालिदास, कुमारसम्भव, 6-56) आज से मैं उसी की शरण को प्राप्त करता हूँ जो सभी जीवों की शुद्धि के लिए बताया गया है, क्योंकि जो अरिहन्तों के द्वारा कहा गया है वही वास्तव में तीर्थ है। 400 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy