________________ प्रश्न : संयम-विनाश के भय को देखकर क्या सल्लेखना ले सकते हैं? उत्तर : नहीं, क्योंकि ऐसा करने से सल्लेखना भयपूर्वक होगी जो मंगलप्रदा नहीं __ है।" सल्लेखना तो प्रीतिपूर्वक और वीरता के साथ होती है। भयपूर्वक सल्लेखना लेना कायरता है और आत्मघात है। प्रश्न : देश की आजादी और खुशहाली के लिए लड़ने वाले स्वतन्त्रता सेनानी मृत्युदण्ड प्राप्त होने पर प्रीतिपूर्वक व वीरता के साथ मृत्यु का वरण करते हैं। क्या उन्हें पण्डित मरण या सल्लेखना मरण कहा जा सकता है? उत्तर : नहीं, क्योंकि वहाँ रागादि का सद्भाव है। रागादि के सद्भाव में सल्लेखना नहीं होती। यदि उस समय उसके परिणामों में किसी के भी प्रति रागादि भाव नहीं रहते हैं तो वह स्वयं सर्व परिग्रह का त्याग करके सल्लेखना धारण कर सकता है, और तब वह न तो गमनादि क्रिया करेगा और न अपनी अन्तिम इच्छा को व्यक्त करेगा। वह तो मृत्युकाल जानकर आत्मलीन या समाधिस्थ हो जायेगा। प्रश्न : सल्लेखना में अन्न, जल आदि का त्याग करके तथा शरीर को क्षीण करके प्राणों को त्यागा जाता है, अतएव यह आत्मवध क्यों नहीं है? उत्तर : आत्मवध में प्राणी विवेक खो देता है। वह प्रमादवश जड़ीभूत हो जाता है और विष-भक्षण आदि के द्वारा आत्महत्या कर लेता है। यदि अविवेकावस्था का वह काल बीत जाता है तो वह आत्मवध का विचार छोड़ देता है। आत्मवध के कारण हैं- प्रमाद, राग, द्वेष आदि / सल्लेखना में यदि ये कारण आ जायें तो वह आत्मवध ही होगी।' प्रश्न : सल्लेखना क्यों धारण करनी चाहिए? उत्तर : यह सच है कि मृत्यु किसी भी प्राणी को प्रिय नहीं है। परन्तु मृत्यु अवश्यम्भावी है। अतएव जब मृत्यु को किसी ओषधि आदि से न रोका जा सके तो नश्वर शरीर की उपेक्षा करके अपने बहुमूल्य गुणरत्नों को बचाना ही सल्लेखना है। जैसे कोई व्यापारी घर में आग लगने पर पहले तो वह आग बुझाने का प्रयत्न करता है, फिर आग पर काबू न होने पर वह बहुमूल्य वस्तुओं को निकालकर उन्हें बचाने का प्रयत्न करता है और शेष (तुच्छ वस्तुओं) को जल जाने देता है। इसी में बुद्धिमानी है। इसीलिए सल्लेखना लेना चाहिए।' प्रश्न : सल्लेखना लेने पर क्या नहीं करना चाहिए? . उत्तर : जीविताशंसा (जीने की आशा), मरणाशंसा (शीघ्र मर जाने की इच्छा), प्राकृतविद्या+जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 41