________________ सल्लेखना : जिज्ञासा और समाधान प्रो. (डॉ.) सुदर्शन लाल जैन सल्लेखना (सत्+लिख्+ल्युट+टाप) शब्द का सामान्य अर्थ है- सम्यक् प्रकार से कर्मों को तथा कर्मों के कारणों को खुरचना या जीवात्मा से अलग करना। किसी भी प्रकार से इसका अर्थ 'प्राणों का घात करना नहीं है। अपरिहार्य मृत्युकाल के उपस्थित होने पर जबकि प्राणों की रक्षा करना संभव न हो, शान्तभावों से सदाचरणपूर्वक प्राणों का विसर्जन होने देना सल्लेखना है- ऐसी जैनाचार्यों की मान्यता है। इसमें प्राणों का त्याग नहीं किया जाता अपितु जब वे स्वतः शरीर से अलग होने लगते हैं तब हम धर्माचरण का परित्याग न करते हुए, हर्ष-विषाद तथा राग-द्वेषादि से परे रहते हुए उन प्राणों को जाने देते हैं। अतएव सल्लेखना लेने के कारणों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कहा है____ अतिवृद्धावस्था होने पर अथवा असाध्य रोग हो जाने पर अथवा अप्ररिहार्य उपसर्ग के उपस्थित हो जाने पर अथवा भीषण दुर्भिक्ष आदि के होने पर साधक जब मृत्यु को अवश्यम्भावी देखे तो सम्यभावपूर्वक क्रोधादि कषायों का सम्यक प्रकार से संयमन करते हुए तथा भोजन-पान आदि का शनैः-शनैः त्याग करते हुए शरीर का विसर्जन करे। . इस तरह आयु की पूर्णता को देखते हुए सहजभाव से आकांक्षा-रहित होकर वीरतापूर्वक शरीर का विसर्जन होने देना सल्लेखना है, आत्मघात नहीं। ___ संसार में ऐसा एक भी प्राणी नहीं है जिसका मरण (शरीर-त्याग) न होता हो। आयु कर्म के क्षय को मरण का कारण माना गया है अथवा भुज्यमान आयु से भिन्न आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का विनाश होना मरण है। यह मरण कई भेदों वाला है। लोकप्रसिद्ध मरण तद्भव मरण है, प्रतिक्षण आयु का क्षरण होना नित्य मरण है। ऐसी स्थिति में हम जितेन्द्रिय होकर क्यों न मरण को प्राप्त हों? संसार में कई तरह के प्राणी हैं जिन्हें हम मरण की दृष्टि से मूलतः दो भागों में विभक्त कर सकते हैं• (1) बालमरण वाले- संसार के विषयों में आसक्त रहते हुए जो मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनका बालमरण कहलाता है। विषादि का भक्षण करके मृत्यु को प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 9039