________________ अन्तर को जानकर समाधिमरण द्वारा आत्मा से परमात्मा की ओर बढ़ते हैं। जैनसल्लेखना में यही तत्त्व निहित है। इसी से प्रत्येक जैन देवोपासना के अन्त में प्रतिदिन यह पवित्र कामना करता है" :- हे जिनेन्द्र ! आप जगद् बन्धु होने के कारण मैं आपके चरणों की शरण में आया हूँ। उसके प्रभाव से मेरे सब दुःखों का अभाव हो, दुःखों के कारण ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश हो और कर्मनाश के कारण समाधिमरण की प्राप्ति हो तथा समाधिमरण के कारणभूत सम्यकबोध (विवेक) का लाभ हो। जैन संस्कृति में सल्लेखना को ही आध्यात्मिक उद्देश्य एवं प्रयोजन स्वीकार किया गया है। लौकिक भोग या उपभोग या इन्द्रादि पद की उसमें कामना नहीं की गई है। मुमुक्षु श्रावक या साधु ने जो अब तक व्रत-तपादि पालन का घोर प्रयत्न किया है, कष्ट सहे हैं, आत्मशक्ति बढ़ाई है और असाधारण आत्म-ज्ञान को जागृत . किया है उस पर सुन्दर कलश रखने के लिए वह अन्तिम समय में भी प्रमाद नहीं करना चाहता। अतएव वह जागृत रहता हुआ सल्लेखना में प्रवृत्त होता है :- . सल्लेखनावस्था में उसे कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए और उसकी विधि क्या है? इस सम्बन्ध में भी जैन-लेखकों ने विस्तृत और विशद विवेचन किया है। आचार्य / समन्तभंद्र ने सल्लेखना की निम्न प्रकार विधि बतलाई है :___ सल्लेखना-धारी सबसे पहले इष्ट वस्तुओं में राग, अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष, स्त्रीपुत्रादि प्रियजनों में ममत्व और धनादि में स्वामित्व का त्याग करके मन को शुद्ध बनाये। इसके पश्चात् अपने परिवार तथा सम्बन्धित व्यक्तियों से जीवन में हुए . अपराधों को क्षमा कराये और स्वयं भी उन्हें प्रिय वचन बोलकर क्षमा करे। इसके अनन्तर वह स्वयं किये, दूसरों से कराये और अनुमोदना किये हिंसादि पापों की निश्छल भाव से आलोचना (उन पर खेद-प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यन्त महाव्रतों का अपने में आरोप करे। इसके अतिरिक्त आत्मा को निर्बल बनानेवाले शोक, भय, अवसाद, ग्लानि, कलुषता और आकुलता जैसे आत्म-विकारों का भी परित्याग कर दे तथा आत्मबल एवं उत्साह को प्रकट करके अमृतोपम शास्त्र-वचनों द्वारा मन को प्रसन्न रखे। इप्रकार कषाय को शान्त अथवा क्षीण करते हुए शरीर को भी कृश करने के लिए सल्लेखना में प्रथमतः अन्नादि आहार का, फिर दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों का त्याग करे। इसके अनन्तर गर्म जल पीने का अभ्यास करे। अन्त में उन्हें भी छोड़कर शक्तिपूर्वक उपवास करे। इसतरह उपवास करते एवं पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते हुए पूर्ण विवेक के साथ सावधानी में शरीर को छोड़े। इस अन्तरंग और बाह्य विधि से सल्लेखनाधारी आनन्द-ज्ञानस्वभाव आत्मा का साधन करता है और वर्तमान पर्याय के विनाश से चिन्तित नहीं होता, किन्तु भावी पर्याय को अधिक सुखी, शान्त, शुद्ध एवं उच्च बनाने का पुरुषार्थ करता है। नश्वर से अनश्वर का लाभ 2600 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004