________________ आदि करनेवाला व्यक्ति भी देवगति के सुखों को भोगकर अन्त में उत्तम स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करता है। पण्डितप्रवर आशाधर जी ने भी इसी बात को बड़े ही प्रांजल शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा है कि स्वस्थ शरीर पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है तथा रुग्ण शरीर योग्य ओषधियों द्वारा उपचार के योग्य है परन्तु योग्य आहार-विहार और औषधोपचार करते हुए भी शरीर पर उनका अनुकूल असर न हो, प्रत्युत रोग बढ़ता ही जाय तो ऐसी स्थिति में उस शरीर को दुष्ट के समान छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। वे असावधानी एवं आत्म-घात के दोष से बचने के लिए कुछ ऐसी बातों की ओर भी संकेत करते हैं, जिनके द्वारा शीघ्र और अवश्य मरण की सूचना मिल जाती है। उस हालत में व्रती को आत्मधर्म-रक्षा के लिए सल्लेखना में लीन हो जाना ही सर्वोत्तम है।" एक अन्य विद्वान् ने भी प्रतिपादन किया है कि जिस शरीर का बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, भोजन उत्तरोत्तर घट रहा है और रोगादिक के प्रतीकार करने की शक्ति नहीं रही है वह शरीर ही विवेकी पुरुषों को यथाख्यात चारित्र (सल्लेखना) के समय को इंगित करता है। मृत्युमहोत्सवकार की दृष्टि में समस्त श्रुताभ्यास, घोर तपश्चरण और कठोर व्रताचरण की सार्थकता तभी है जब मुमुक्षु श्रावक अथवा साधु विवेक जागृत हो जाने पर सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग करता है। वे लिखते हैं :- जो फल बड़े-बड़े व्रती पुरुषों को कायक्लेशादि तप, अहिंसादि व्रत धारण करने पर प्राप्त होता है वह फल अन्त समय में सावधानीपूर्वक किये गये समाधिमरण वाले जीवों को सहज में प्राप्त हो जाता है अर्थात् जो आत्म-विशुद्धि अनेक प्रकार के तपादि से होती है, वह अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर-त्याग से प्राप्त हो जाती है। बहुत काल तक किये गये उग्र तपों का, पाले हुए व्रतों का और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्रज्ञान का एकमात्र फल शान्ति के साथ आत्मानुभव करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना है। __आचार्य समन्तभद्र की मान्यतानुसार जीवन में आचरित तपों का फल वस्तुतः अन्त समय में गृहीत सल्लेखना ही है। अतः वे उसे पूरी शक्ति के साथ धारण करने पर जोर देते हैं। आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि भी सल्लेखना के महत्त्व और आवश्यकता को बतलाते हुए लिखते हैं -मरण किसी को इष्ट नहीं है। जैसे अनेक प्रकार के सोना-चाँदी, बहुमूल्य वस्त्रों आदि का व्यवसाय करनेवाले किसी व्यापारी को अपने उस घर का विनाश कभी इष्ट नहीं है, जिसमें उक्त बहुमूल्य वस्तुएँ रखी हुई हैं। यदि कदाचित् उसके विनाश का कारण (अग्नि का लगना, बाढ़ आ जाना या राज्य में विप्लव का हो जाना, आदि) उपस्थित हो जाय, तो वह उसकी रक्षा का पूरा उपाय करता है और जब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ दिखाई नहीं देता, तो घर में रखे हुए उन बहुमूल्य पदार्थों को बचाने का भरसक प्रयत्न करता है और घर को 24 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004