________________ जैनदर्शन में सल्लेखना : एक अनुशीलन Ev डॉ. दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य जन्म के साथ मृत्यु का और मृत्यु के साथ जन्म का अनादि-प्रवाह सम्बन्ध है। . जो उत्पन्न होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म भी होता है। इस तरह जन्म और मरण का प्रवाह तब तक प्रवाहित रहता है जब तक जीव की मुक्ति नहीं होती। इस प्रवाह में जीवों को नाना क्लेशों और दुःखों को भोगना पड़ता है। परन्तु राग-द्वेष और इन्द्रिय-विषयों में आसक्त व्यक्ति इस ध्रुव सत्य को जानते हुए भी उससे मुक्ति पाने की ओर लक्ष्य नहीं देते। प्रत्युत जब कोई पैदा होता है तो उसका वे जन्मोत्सव मनाते तथा हर्ष व्यक्त करते हैं। और जब कोई मरता है तो उसकी मृत्यु पर आँसू बहाते एवं शोक प्रकट करते हैं। . - पर संसार-विरक्त मुमुक्षु सन्तों की वृत्ति इससे भिन्न होती है। वे अपनी मृत्यु . को अच्छा मानते हैं और यह सोचते हैं कि जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी पिंजरे से आत्मा को छुटकारा मिल रहा है। अतएव जैन मनीषियों ने उनकी मृत्यु को मृत्युमहोत्सव के रूप में वर्णन किया है। इस वैलक्षण्य को समझना कुछ कठिन नहीं है। यथार्थ में साधारण लोग संसार (विषय-कषाय के पोषक चेतनाचेतन पदार्थों) को आत्मीय समझते हैं। अतः उनके छोड़ने में उन्हें दुःख का अनुभव होता है और उनके मिलने में हर्ष होता है। परन्तु शरीर और आत्मा के भेद को समझनेवाले ज्ञानी वीतरागी सन्त न केवल विषय-कषाय की पोषक बाह्य वस्तुओं को ही, अपितु अपने शरीर को भी पर-अनात्मीय मानते हैं। अतः शरीर को छोड़ने में उन्हें दुःख न होकर प्रमोद होता है। वे अपना वास्तविक निवास इस द्वन्द्व-प्रधान दुनिया को नहीं मानते, किन्तु मुक्ति को समझते हैं और सद्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, त्याग, संयम आदि आत्मीय गुणों को अपना यथार्थ परिवार मानते हैं। फलतः सन्तजन यदि अपने पौद्गलिक शरीर के त्याग पर मृत्यु-महोत्सव मनायें तो कोई आश्चर्य नहीं है। वे अपने रुग्ण, अशक्त, जर्जरित, कुछ क्षणों में जानेवाले और विपद्-ग्रस्त जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़ने तथा नये शरीर को ग्रहण करने में उसी तरह उत्सुक एवं प्रमुदित होते हैं जिस तरह कोई व्यक्ति अपने पुराने, मलिन, जीर्ण और काम न दे सकनेवाले वस्त्र 2200 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004