________________ सल्लेहणा थुदि 2) डॉ. उदयचन्द्र जैन उल्लास-दिव्व-रवि-तेउ-सदा हि राजे। मुत्तिं सिरिं रस-णिमग्ग-खमं च भावं।। धारेज्ज मुत्ति-णिलयं लहिदुं च सम्म। अंते समाहि-मरणं भव-णंद घाएं / / 1 / / इस जगत् में अंतिम समय में धारण किया गया समाधिमरण वास्तव में दिव्य, बढ़ते हुए सूर्य के तेज की तरह सुशोभित होता है; क्योंकि उस समय साधक संसार-सुख को . घात करके मुक्तिश्री रूपी रस में निमग्न होने के लिए क्षमा भाव को धारण करता है, तथा मुक्ति-निलय को प्राप्त करने के लिए ही अच्छी तरह समभाव धारण करता है। सल्लेहणा. समसमं जगदेसरत्तं। णाणं च दंसण-चरित्त-तवं च ठाणं।। संतोस-चित्त-णिलए सुविसुद्ध-भावे। संसार-सागर-तरं तरिदं च ‘णावं / / 2|| सल्लेखना सम-शम को प्रदान करती है। यह संसार-सागर से पार करने के लिए नौका है। उसमें संतोष चित्तयुक्त सुविशुद्धभाव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप को स्थान दिया जाता है अतः वह जगत् के ऐश्वर्य को प्राप्त कराती है। साणंद-राजिद-सुदे मरणे हि काले। भव्वाणणं खमणिहिं च वीदरागं।। / णाणाविभाव-परिणाम-सु मुत्त-जत्तं। कुव्वेज्ज सल्लिहण भाव-जिणं च धम्मं / / 3 / / सल्लेखना में सल्लेखन के भाव होने चाहिए; उसमें जिनधर्म को, वीतराग भाव को, क्षमानिधि को एवं भव्यानन को महत्त्व देना चाहिए। तभी नाना प्रकार के विभाव-परिणामों से रहित होकर साधक जीव सुखद यात्रा कर सकता है। दिव्वं च तच्च-परमत्थ-वियार-पुव्वं / . सल्लेहदे जग-जगं ण कुवाद-वादं / / 2000 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004