________________ दुर्जेय हैं, अतः सल्लेखना की सिद्धि के लिए ये कषायें संदा कृश करने योग्य हैं। देखो ! यद्यपि आपके सर्वांग अत्यन्त कृश हो गये हैं, मात्र हाड़ और चाम ही अवशेष रहा है, तथापि आत्मा के हितार्थ सत्त्व और साहस- इन दो को उत्पन्न करो, क्योंकि इन दो गुणों के द्वारा ही आपके तप, संन्यास और संयम आदि की पूर्णता हो सकती है। शारीरिक और मानसिक दुःखों पर विजय प्राप्त करने के लिए आपको भी ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि मैं देहस्वरूप नहीं हूँ। न मुझे कोई रोग है, न पीड़ा है और न मेरा मरण है। ये सब शरीर की अवस्थाएँ हैं। मैं शरीर में भिन्न, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण, एक शुद्ध आत्मा हूँ, सुख ही मेरा. स्वभाव है, जन्ममरण मेरी अवस्थाएँ नहीं हैं। इस समाधिमरण और उत्तम ध्यान के अवलंबन से मैं भी अपनी आत्मा को उसी प्रकार पृथक कर सकता हूँ जिस प्रकार कोई म्यान से तलवार को पृथक् कर लेता है। मनुष्य का मन ही सर्व अनर्थों की जड़ है, जिन पुरुषों ने इस मन रूपी कलभ को ज्ञान रूपी सुदृढ़ सॉकलों से नहीं बाँधा वे पुरुष दुःख भोगते हुए इस संसार रूपी अटवी में ही भटकते रहते हैं, किन्तु जो महापुरुष इस मन को वश में करने की कला सीख लेते हैं, उनके रागद्वेष नष्ट हो जाते हैं और रागद्वेष नष्ट हो जाने से साम्य भाव की प्राप्ति हो जाती है, आप भी अपने मन रूपी वृक्ष में मोह रूपी जल का सिंचन करना बन्द कर दो ताकि यह फल देने में असमर्थ हो जाय और आपका कल्याण हो जाय / जिस सल्लेखना को आपने आज तक कभी धारण नहीं किया था, उसे धारण करने का सुअवसर आपको आज प्राप्त हुआ है, अतः अब ऐसा पुरुषार्थ करो जिससे इस आत्महितकारी सल्लेखना में कोई दोष न आ पावे, आप परीषहों के कष्टों से मत घबराओ, वे आपकी आत्मा का कुछ भी बिगाड नहीं कर सकते। अपने पूर्व संचित कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा करने के लिए आप सल्लेखनाजन्य कष्टों को उसी धीरता एवं सहनशीलता से सहन करो जिस प्रकार धन्य नाम के मुनिराज ने सहन किये थे। चिन्तन से आत्मदृढ़ता बढ़ती है और शरीर से मोह छूटता है, अतः भेदविज्ञान की भावना अवश्य भाते रहना चाहिए। वीतरागी सम्यग्दृष्टि जीव ही आत्मध्यान से विचलित नहीं होते। जिसके भय से विचलित होकर तीनों लोकों के प्राणी मार्ग छोड़ देते हैं, वज्र के पड़ने पर भी वे स्वाभाविक निर्भयता से सभी प्रकार की शंकाओं को छोड़कर स्वयं अपने आपको अखण्ड ज्ञानमय जानते हुए आत्मस्वरूप से विचलित नहीं होते। आज कर्मोदय से उत्पन्न होने वाले क्षुधातृषा आदि के अल्प से ताप भी हमसे शान्तिपूर्वक सहन नहीं किये जाते। यह संसार एक विशाल समुद्र के सदृश है, क्योंकि यह भयंकर दुःखसमूह रूपी जल से भरा है, दुर्गति रूपी बड़वानल से भयंकर है, दुःसाध्य रोग 18410 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004