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________________ सल्लेखनारूपी शरीर-परित्याग से संसार की अवधि सात-आठ भव से अधिक नहीं रहती, इसलिए सल्लेखनारूपी असिधाराव्रत का पालन प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वपूर्वक किन्तु समाधिमरण-रहित तपश्चरणादि करने वाला प्राणी अधिक से अधिक कुछ काल कम अर्धपुद्गलपरावर्तन तक संसारपरिभ्रमण कर सकता है, किन्तु सम्यक्त्वसहित. तप एवं चारित्र धारण करनेवाले जीव यदि मरणसमय में संन्यास विधि का आश्रय लेते हैं तो वे अल्पकाल में ही मोक्ष के भाजन बन जाते हैं। सल्लेखना का काल इस निःकृष्ट पंचम काल में उत्तम संहनन नहीं होते, अतः इंगिनी और प्रायोपगमन संन्यास की प्राप्ति अति दुर्लभ है, मात्र भक्तप्रत्याख्यान संन्यास साध्य है। आचार्यों ने इसका उत्कृष्ट काल 12 वर्ष और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। मध्यम काल के असंख्यात भेद हैं। पूर्वकथित कारण उपस्थित होने पर तो यम अथवा नियम सल्लेखना धारण करनी ही चाहिए, किन्तु निमित्तज्ञान से अपनी अल्प आयु का निर्णय करके भी सल्लेखना धारण करनी चाहिए। किसी निमित्त विशेष से अथवा अन्य प्रकारों से अपनी आयु की समाप्ति समीप जानकर अपने आचार्यादि पद एवं शिष्यादि का परिग्रह त्याग कर ऐसे निर्यापकाचार्य की खोज करनी चाहिए जो आचारवान- पंचाचार से युक्त हो, आधारवान्-बहुश्रुत का धारी हो, व्यवहारवान्-गुरुपरम्परा से प्राप्त हुए प्रायश्चित्तसूत्र के ज्ञान से विभूषित हो, प्रकर्ता- सर्व संघ की वैयावृत्त्य करने में समर्थ हो आयापायविदर्शीरत्नत्रय का विनाश और रत्नत्रय का लाभ, इन दोनों के गुण-दोष समझाकर मायाशल्य को दूर करने में निपुण हो, अवपीड़क- अपने तेजस्वी वचनों द्वारा क्षपक के दोषों को बाहर निकाल कर उसे निःशल्य बना देने वाला हो, अपरिस्रावी-क्षपक द्वारा कहे गये दोषों को अन्य किसी को प्रगट न करने वाला, गम्भीर स्वभाव वाला हो, शीत, उष्ण, भूख, प्यास तथा रोग की तीव्र वेदना आदि के कारण क्षुब्ध हो जाने वाले क्षपक की आराधनाओं की पूर्ति के लिये अनेक उपायों का ज्ञाता हो, वैयावृत्य कराने में समर्थ हो। ऐसे निर्यापकाचार्य ही क्षपक की सल्लेखना निर्विघ्न पूर्ण करा सकते हैं। उनके समक्ष साधक को अपनी सल्लेखना पूर्ण करनी चाहिये। सर्वप्रथम साधक का कर्तव्य है कि वह शोक, भय, खेद, स्नेह, राग, द्वेष और अप्रीति का परित्याग करते हुए सभी से क्षमायाचना करे अपने को दुःख देने वालों को अथवा शत्रु आदि को मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक स्वयं क्षमा करे क्योंकि जो स्वयं दूसरों को क्षमा करते हैं और दूसरों से क्षमा कराते हैं वे ही इस दुर्लंघ्य संसार-समुद्र को पार कर पाते हैं। क्षमा माँगने वालों को जो क्षमा नहीं करते हैं वे दीर्घसंसारी होते हैं। प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 173
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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