________________ (अ) भक्तप्रतिज्ञा - भक्त प्रतिज्ञा में संघ से भी वैयावृत्ति करावे और स्वयं भी करे एवं अनुक्रम से आहार, कषाय, देह का त्याग करे। (ब) इंगिनीमरण - पर से वैयावृत्य नहीं करावे तथा आहार पान आदि रहित एकाकी वन में देह त्याग करे, अपनी टहल आप करे। (स) प्रायोपगमन - वैयावृत्य आप भी न करे, पर से भी न कराये, सूखा काष्ठवत् वा मृतकवत् सर्व काय-वचन की क्रिया रहित यावत् जीवन त्यागी हो धर्मध्यान सहित मरण को वरे। * बालपण्डित मरण - देशसंयम का पालन करनेवाले सम्यग्दृष्टि श्रावक के ग्यारह प्रतिमाओं में से कोई भी प्रतिमाधारी का समताभावों पूर्वक देह से छूटता जानना बालंपण्डित मरण कहलाता है। इससे सोलहवें स्वर्ग तक की ही प्राप्ति होती है। उक्त तीनों मरण प्रशंसा योग्य हैं। * बालमरण - अविरत सम्यग्दृष्टि, व्रत संयम रहित, केवल तत्त्वश्रद्धानपूर्वक शांत परिणामों सहित देह के वियोग को प्राप्त करना है जिससे बहुधा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। बाल-बालमरण - जिसके.सम्यक्त्व व व्रत कुछ भी नहीं होते, ऐसे मिथ्यादृष्टि का आकुलतापूर्वक कषायों एवं राग, द्वेष, मोहादि सहित मरण बाल- बालमरण है जो चतुर्गति-भ्रमण का कारण है। यह निकृष्ट मरण गिना जाता है। यथार्थ में मरण शरीरधारी प्राणियों के लिए उतना ही सत्य है जितना जीवन सत्य है। जीवन के मोह में पड़कर मनुष्य उस सत्य को भुला देता है और किसी भी उपाय से सदा जीवित रहने का ही प्रयत्न करता है। किन्तु उसका यह प्रयत्न सफल नहीं होता। एक दिन मृत्यु उसके इस प्रयत्न को समाप्त कर देती है। अतः जीवन के साथ मृत्यु के भी सुनिश्चित होने से मनुष्य को जीवन के साथ मरने की भी तैयारी करते रहना चाहिए। जीवन में हर्ष और मृत्यु में विषाद नहीं करना चाहिए। जिनका जीवन शानदार होता है, उनकी मृत्यु शानदार होती है। रोते हुए प्राणों का त्याग करना एक तरह से कायरता ही है। अतः मृत्यु का आलिंगन भी साहस के साथ करना चाहिए। - यदि कदाचित कोई व्यक्ति पहले व्रतों का निर्दोष पालन आदि कुछ भी नहीं किये हुए हो और मरणकाल में अच्छी तरह आराधना को प्राप्त हो गया हो, तो सभी को वैसा हो जायेगा, हम भी अन्तकाल में आराधना कर लेंगे, ऐसा मानकर प्रमादी होकर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि ऐसा होना तो स्थाणुमूल निधानवत् है अर्थात् कोई जन्मांध व्यक्ति मार्ग में जा रहा था। अचानक स्थाणु (ढूंठ) से टकराया, मस्तक से विकारी खून निकल गया और उसके नेत्र खुल गये। साथ ही जीर्ण स्थाणु (ढूंठ) प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 167