________________ नाम हैं। ध्येय और ध्याता का एकीकरण रूप समरसी भाव ही समाधि है। धर्म और शुक्ल ध्यान को समाधि कहते हैं। बहिर् और अन्तर्जल्प के त्याग स्वरूप योग है। और स्वरूप में चित्त का निरोध करना समाधि है। सम्यग्दर्शनादि को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना समाधि है। जैनधर्म में समाधिमरण का बड़ा महत्त्व है। इसे एक परमावश्यक अनुष्ठान माना गया है। जैनाचार्यों का कहना है कि समाधिमरण के द्वारा ही जन्म सफल हो सकता है। यह केवल मुनियों के लिए नहीं, वरन् गृहस्थों के लिए भी आवश्यक है। आचार्य समन्तभद्र इसे तप का एक फल मानते हैं। समाधिमरण के लिए तीर्थ क्षेत्र या पुण्यभूमि उत्तम स्थान है। विधिपूर्वक समाधि-साधन के लिए शास्त्रज्ञ प्रभावशाली आचार्य का होना भी जरूरी है जिसे निर्यापकाचार्य कहा जाता है। सल्लेखना की प्रतिज्ञा ले लेने पर पूर्व के संस्कारों के कारण क्षपक का पुनः पुनः विचलित होना सम्भव है। मध्ये मध्ये हि चापल्यमामोहादपि योगिनाम्।' बड़े-बड़े योगियों को भी कषायों के तीव्र उदय से मन में अत्यन्त चंचलता होती है, फिर साधारण पुरुषों की क्या बात है। चित्त की अस्थिरता और दुर्बलता नष्ट करने के लिए और धर्म में स्थिर रहने के लिए, योग्य गुरु का सान्निध्य आवश्यक हैं। विधिपूर्वक एकाग्रचित्त से धारण की हुई सल्लेखना का प्रत्यक्ष फल कषायों की मन्दता और परोक्ष फल पंचमगति अर्थात् मोक्ष है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं “निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् / निष्पिबति पीतधर्मा सर्वैर्दुःखैरनालीढः / / " -रत्नकरण्ड श्रावकाचार 130 अर्थात् समाधिमरण धारण कर जिन्होंने धर्मामृत पान करते हुए, आत्मा को पवित्र किया है वे स्वर्ग में अनुपम अभ्युदय के स्वामी बनकर अन्त में सम्पूर्ण दुःखों से रहित हो - जिसका कभी विनाश (अन्त) नहीं ऐसे अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति स्वरूप सुखसागर के पान में निमग्न हो जाते हैं। अर्थात समाधिमरण द्वारा अर्जित धर्म के प्रसाद से स्वर्ग के साथ अन्त में अनुक्रम से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। अतः प्रत्येक विचारशील गृहस्थ को जैनधर्म के अनुसार समाधिमरण की विधि और उसकी महत्ता पर विचार कर लाभ उठाना चाहिए। सल्लेखना आत्मघात नहीं देहत्याग की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण कुछ लोग इसे आत्मघात कहते हैं परन्तु सल्लेखना आत्मघात नहीं है। जैन धर्म में आत्मघात को पाप - हिंसा एवं आत्मा का अहितकारी कहा गया है। यह ठीक है कि आत्मघात और सल्लेखना, दोनों में प्राणों का विमोचन होता है, पर दोनों की मनोवृत्ति में 15800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004