SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मरण के वेत्ताओं ने मरण के अनेक भेद बताये हैं। भगवती आराधना में 17 प्रकार के मरण-भेदों का विशद विवेचन किया है। तात्पर्य प्रयोजनार्थ तो यहाँ यह लिखना उपयुक्त प्रतीत होता है- 'स्वायुरिन्द्रियबलसंक्षयो मरणम्' / जीव अपने परिणामों से जितने काल के लिए आयु कर्म का बन्ध करता है, उसी के अन्तिम समय को प्राप्त करनेवाली आयु और इन्द्रिय, बल, मन, वचन, काय इन बलों का किन्हीं कारणों से विनष्ट हो जाना मरण कहलाता है। यही विद्वानों ने मरण का स्वरूप माना है। एकइन्द्रिय जीव के चार प्राण से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राण होते हैं। इसप्रकार जीव के जितने प्राण होते हैं उनका क्षय होना मरण कहलाता है। इसी की पुनः पुष्टि करते हैं- 'अन्तग्रहणं तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम्।' -राजवार्तिक ___ मरण के प्रयोजनार्थ दो भेद बताये हैं- एक तो नित्य मरण, दूसरा तद्भवमरण। नित्य मरण का तात्पर्य यह है कि जिस जीव ने जितने आयु कर्म को बाँधा है उतनी अवधि के लिए और उसी समय तक आयुकर्म पुद्गल परमाणु उदय में आते रहे सो क्षण-क्षण में अपनी आयु, इन्द्रिय, शरीरादि के निषेक हैं वे समाप्त होते जाते हैं, वह नित्य मरण कहलाता है। इसमें इतना विशेष अवश्य है कि आयु कर्म के पुद्गल परमाणु क्रम-क्रम से खिरते हैं और उनका खिरना तभी तक होता है जबतक उनके मध्य काल में किसी कारणवश उदीरणा न होवे। अतः यह अन्त मरण हो जाता है। तद्भव मरण का अर्थ है कि दूसरे भव प्राप्ति के क्षण में ही पूर्व भंव का विनाश हो जाना। जब आयु कर्म के निषेक निःशेष रह जाते हैं वही अन्त का मरण है। मरण का अर्थ तद्भव मरण का ही है अर्थात् जो मरण के समय सल्लेखना ली जाती है वह मरण काल की कहलाता है। मरण का समानार्थ पर्याय त्यागना है। यह प्रत्येक जीव के साथ सम्बन्धित है। केवली या छद्मरथ सम्पूर्ण जीव आयु कर्म के द्वारा शरीर का सम्बन्ध पाते हैं और उसी कर्म के क्षय के साथसाथ शरीर को छोड़ते हैं। अतः इस दृष्टि से सबका मरण कहना अनुचित नहीं। इसमें विशेषता इतनी अवश्य है कि केवली तो प्राप्त शरीर को छोड़कर पुनः नवीन अंग को धारण नहीं करते हैं जबकि अल्पज्ञ पूर्व शरीर को त्यागते ही क्षण भर में अन्य नवीन शरीर धारण कर लेते हैं। केवली का पुनः मरण नहीं होता है। वे अजर-अमर हो जाते हैं किन्तु अल्पज्ञ पुनः मरण करता है। अतः मरण पुनः-पुनः जन्म-मरण का निमित्त है। अनेक रोगों से पीड़ित और अनेक कष्टों से ग्रसित छोटे से छोटा जीव भी मरण से व्याकुल होता है, अतः इस महान् दुःख से छुटकारा पाने का एकमात्र मुख्य उपाय समाधिमरण ही है, जो इस महान् कष्टदायक रोग मरण की परमौषधि है। जब साधक को निश्चयपूर्वक यह ज्ञात हो जाता है कि आयु का अन्त आ गया है उसी समय वह आत्मा की शुद्धि, निर्मलता एवं कषायों को दूर करने के लिए 15200 प्राकृतविद्या+जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy