________________ समाधिमरण : जीवन-सुधार की कुंजी हैy पं. रतनलाल कटारिया काय और कषायों को कृश करते हुए शान्त भावों से शरीर के त्याग को समाधिमरण कहते हैं। सल्लेखना, संन्यासमरण, अन्त्यविधि, पण्डित मरण, अन्तक्रिया, मृत्यु महोत्सव, आर्याणां महाऋतुः आदि सब इसी के नाम हैं। समाधिमरण धारण करनेवाले को साधक, प्रेयार्थी आदि कहते हैं। अनेक अपराध करने पर भी अन्त में मनुष्य क्षमा माँगने पर जैसे अपराधों से मुक्त हो जाता है, उसी तरह जीवनभर पापारम्भ करनेवाला भी अगर अन्त समय में समाधि धारण कर लेता है तो अवश्य सुगति का पात्र होता है। 'अन्त भला सो सब भला की इस बात को जैन ही नहीं जैनेतर सम्प्रदायों में भी महत्त्व दिया गया है। वैदिक पुराणों में अनेक ऐसे आख्यान आते हैं जिनमें अन्त समय में नारायण का नाम लेने वाले पापी भी बैकुंठगामी हुए हैं। अजामिल ने सारी जिन्दगी पापकर्म में बिंताई परन्तु अन्त समय में नारायण का नाम लेने से वह बैकुण्ठवासी हुआ। इसी बात को जैन-कथाकारों ने भी दूसरे शब्दों में चित्रित किया है। जीवन्धर कुमार ने मरणासन्न कुत्ते को णमोकार मन्त्र दिया तथा तीर्थंकर पार्श्वप्रभु ने अग्नि में जलते हुए दो सर्यों को पंच परमेष्ठी मन्त्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह तिर्यंच जीव भी देवगति को प्राप्त हुए। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद अपना कार्य पूरा हुआ जानकर सहर्ष मृत्यु का स्वागत करनेवाले भीष्म पितामह की ‘इच्छा-मृत्यु' भी जैन-सल्लेखना से मिलती हुई है। सारी जिन्दगी जप-तप करने पर भी अगर मृत्यु-समय समाधि धारण न की जाये तो सारा जप-तप उसी तरह वृथा होता है जिस तरह विद्यार्थी पूरे वर्ष भर पाठ याद करे और परीक्षा के समय उसे भूल जाये या शस्त्राभ्यासी योद्धा रणक्षेत्र में जाकर कायर बन जाये या कोई दूर देशान्तर से धनोपार्जन करके लाये और उसे गाँव के समीप आकर लुटा बैठे। बिना समाधिमरण के चारित्रवान् भी जीवन के फलहीन वृक्ष की तरह निस्सार होता है। इसी को स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है- समस्त मतावलम्बी तप का फल अन्तक्रिया समाधिमरण पर ही आधारित बताते हैं, अतः पुरुषार्थ भर समाधिमरण के लिए प्रयत्न करना 14400 ___प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004