________________ चूडामणि कहते थे। सन् 1131 ई. में जब वह शिथिलगात हुईं तो उन्होंने शिवगंगा में सल्लेखना-विधि से स्वर्ग लोक को प्रयाण किया था। उनकी माँ माचिकव्वे ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा कि मैं बुढ़िया अब जीकर क्या करूँगी, उनका हृदय टूट गया। वह श्रवणबेलगोल गईं और सल्लेखना व्रत की आराधना करने लगीं। अर्धोन्मीलित नेत्रों से ध्यान माड़कर वह निरन्तर पंचपरमेष्ठी भगवान का नाम जपतीं थीं। उन्होंने सभी इष्ट मित्रों से विदा ली और क्षमा माँगी। जिनेन्द्र के ध्यान में एक मास तक लवलीन रहकर वह स्वर्ग सिधारीं / आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव, वर्द्धमानदेव और रविचन्द्रदेव ने उनको धर्म में सावधान रखा था। महान् थीं माचिकव्वे ! -(इपी. कर्णाटिका, 2, 143, पृष्ठ 73-74) वीरगल उपरान्त सल्लेखना मरण योद्धाओं की वीरगति के तुल्य माना जाने लगा। सल्लेखना लेने वालों के भी वीरगल बनने लगे। यह शिलापद वीर योद्धाओं की स्मृति में बनते थे और इन पर रणभूमि के दृश्य अंकित होते थे। सल्लेखना वीरगलों में जिनमूर्ति के अतिरिक्त आराधक का भी चित्र बना होता था। लोक विद्याधर की पत्नी उनके साथ रणांगण में संग्राम करने गई और मरणान्तिक शस्त्रघात से पीड़ित हो उन्होंने समाधिमरण किया। उनके वीरगल पट्ट पर उनका चित्र वैरी से युद्ध करते हुए दर्शाया गया है। . जैनसंघ में सल्लेखना की परम्परा प्राचीन काल से अब तक बराबर चली आ रही है। वह आत्मबल बढ़ाने का एक साधन है- कषाय और वासना से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। हठात जीवन का अन्त करना भी उनका ध्येय नहीं है। सल्लेखना तो सफल जीवन बिताकर जब मरणवेला आये तो उस समय वीर भाव से परलोक सिधारने का पाठ पढ़ाने के लिए स्वर्णिम सूत्र है, अतः ऐसी सल्लेखना को नमस्कार। - समाधिमरण “प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनम्। तृतीये नार्जितो धर्मश्चतुर्थे किं करिष्यति।।” अर्थ :- जिसने प्रथम बालावस्था में विद्यार्जन नहीं किया, द्वितीय युवावस्था में धनार्जन नहीं किया, तृतीय प्रौढ़ावस्था में धर्मार्जन नहीं किया; वह चतुर्थ वृद्धावस्था में - मरणकाल में क्या करेगा? तात्पर्य यह है कि उत्तम मृत्यु की साधना मृत्यु आने से पहले ही कर लेनी चाहिए। 1300 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004