________________ करते हैं और शरीर में कोई चेष्टा न होने पर अत्यन्त दुःखी होते हैं। जब बोध होता है तो अपनी करनी पर पश्चाताप करते हैं / अन्तरात्मा दृष्टि सम्पन्न का भी ऐसा ही चिन्तन होता है। मरणशील शरीर के प्रति उसकी यही दृष्टि बनती है। इसीलिए ऐसा जीव मरण को समीप जान कर यथायोग्य समय में समाधि या सल्लेखनापूर्वक मरण की तैयारी में जुट जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने सल्लेखना धारण की अवस्थाओं का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि उपसर्ग, दुर्भिक्ष वृद्धावस्था अथवा असाध्य रुग्णावस्था की स्थितियों के उपस्थित होने पर आत्म धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना धारण करनी चाहिए। ___वस्तुतः मनुष्य जन्म की सफलता ऐहिक भोग सम्पदा में नहीं होती। इस बात का ज्ञान अणुव्रती सद्गृहस्थ को होता है। अतः उपर्युक्त अवस्था के उत्पन्न होने पर वह आत्मकल्याणार्थ सांसारिक चक्रव्यूह .से स्वयं को निकालने का सार्थक प्रयत्न करने की ओर अग्रसर होता है। ___ सल्लेखना के वास्तविक निहितार्थ को न समझते हुए ही इसे आत्महत्या कहा जाता है। जबकि आत्म हत्या में संक्लेश परिणामों की प्रमुखता होती है और उन परिणामों के प्रतिकार के रूप में आत्म हत्या जैसी प्रवृत्ति पनपती है। ठीक इसके विपरीत निरन्तर सदविवेकपूर्वक जीवन यापन करते हुए शारीरिक नियति को देखकर विधिवत् सल्लेखना धारण की जाती है। देह के निमित्त भोग-उपभोग की सीमाओं को क्रमशः हासोन्मुख बनाते हुए आत्म जागरण का निरन्तर अभ्यास करते हुए देह का विसर्जन किया जाता है। सल्लेखनापूर्वक मरण करनेवाला मुमुक्षु साधकं मृत्यु का आलिंगन करता है। देह छूटने की व्यग्रता समाप्त हो जाती है। कविहृदय मिश्रीलाल जैन ने इसका सटीक चित्रण किया है ___“आगे-आगे अपनी अरथी के मैं गाता चलूँ। सिद्ध नाम सत्य है, अरिहन्त नाम सत्य है।।" निष्कर्षतः जब मरण होना निश्चित है तो उसको सहजता से स्वीकार करते हुए मुक्ति का प्रयास करना ही तो सद्विवेक का तकाजा है। इसीलिए बिरले धीरवीर व्यक्ति ही इस मृत्यु महोत्सव का उपक्रम कर पाते हैं। * सन्दर्भ 1: तत्रं नित्यमरणं. समयसमये स्वायुरादीनां निवृत्तिः / तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्त्य नन्तरोपश्लिष्टं पूर्वभवविगलनम्। -राजवार्तिक, 7/22/2 2. पंडिद पंडिदमरणं पंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च / / -भगवती आराधना 26 3. पंडिदपंडिदमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो। -भगवती आराधना 27 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांकः) '2004 0 121