________________ से साक्षात्कार करना है। देहविसर्जन की यह प्रक्रिया अर्थात् सल्लेखना केवल मुनियों के लिए साध्य होती है। सारा जीवन जिसने धर्ममार्ग में व्यतीत किया हैऐसे धर्ममार्गी और ज्ञानमार्गी सल्लेखना धारण कर सकते हैं। साधारण मनुष्य अपने परिवार में, स्वार्थ में, अहर्निश डूबा रहता है। उसके मानसिक परिणाम विशुद्ध नहीं रहते। अशुद्ध भाव से उसको यह संसार छोड़ना पड़ता है। केवल अन्न और जल का त्याग करना समाधिमरण के लिए पर्याप्त नहीं। कषायरहित होना, आत्मस्वरूप में तल्लीन होना, विकल्परहित होना, प्रसन्नचित्त होकर आत्मध्यान करना सल्लेखना के लिए अत्यावश्यक होता है। सल्लेखना वीतरागता की कसौटी है। __ -आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के उक्त वचन अत्यन्त अर्थपूर्ण हैं। सरागी जीव समाधिमरण को प्राप्त नहीं कर सकता। निरासक्त होना, सम्पूर्णतया विराग होना अत्यावश्यक है। जैनतत्त्वदृष्टि मनुष्य को जन्म से ही यह पाठ सिखाती है। श्रावकों के अणुव्रतों में भी निर्विकार होने की एक प्रक्रिया अनुस्यूत है। धर्ममय जीवन कभी विकारोन्मुख नहीं होता। जब धर्म का पालन निर्विवाद रूप से नहीं हो सकता -ऐसी अवस्था में समाधिमरण की तैयारी करनी चाहिए। समाधिमरण को वीरमरण कहा गया है। मरण भी तरह-तरह के होते हैं। कुछ लोग जीवित अवस्था में मृतवत् होते हैं। ऐसे लोगों के सम्बन्ध में शेक्सपियर कहते है- Cowards die many times before their death कायर मनुष्य मरणपूर्व ही अनेक बार मरते हैं। अत्यन्त मार्मिक सुभाषित है। पग-पग पर मृत्यु से डरनेवाला अपना जीवन भी आनन्द से नहीं जी सकता। लेकिन जैन साधु सम्पूर्ण मोह, लोभ और अहंकार छोड़कर समाज को प्रबोधित करते रहते हैं। जीवन की अच्युता तथा सौन्दर्य उनके जीवन में दिखाई पड़ती है। जैसे वीरों का जीवन और वीरों का मरण समाज में कुछ शुभंकर विचार निर्माण करते हैं। पचास वर्ष पूर्व कुन्थलगिरि क्षेत्र में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी ने मृत्यु-महोत्सव का भव्य दर्शन प्रस्तुत किया। आयु हो चुकी थी, दृष्टि में मन्दता बढ़ने लगी। प्राणीसंयम का पालन करने में शरीर असमर्थ होने लगा। तब उन्होंने सल्लेखना धारण की। वे केवल अपने आत्मरूप में निमग्न हो गये। पाँच सप्ताह तक यह महोत्सव चलता रहा था। उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो चुका था, फिर भी छब्बीसवें दिन उन्होंने सारे समाज को अपनी मंगल-वाणी से प्रबोधित किया। संयम और त्याग की नितान्त आवश्यकता का उन्होंने प्रतिपादन किया। पूज्य का यह अन्तिम प्रवचन सुनकर जनता मुग्ध हो गयी। पूज्य जी का प्रत्येक शब्द जैन तत्त्वज्ञान की सुधा से सुगन्धित था। अर्थपूर्ण एवं भावभरित शब्दों में उन्होंने जनसमूह को सच्चे जीवन की राह बताई। वे स्वयं मृत्यु के मार्ग पर थे, किन्तु अत्यन्त निराकुल मन से लोगों को धर्मजीवन का प्रकाश प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 105