________________ उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता में मृत्यु की अवधारणा अश्रद्धा पर प्रजापति की प्रेरणा से प्राण (पंचक) ने शरीर त्याग का उपक्रम किया। उसके द्वारा ऐसा प्रारम्भ करते ही समस्त इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। उन सबने मिलकर प्राण से प्रार्थना की - “भगवन् एधि, त्वं नः श्रेष्ठोऽसि, मोत्क्रमीरिति।" अर्थात् हे भगवन् आप समृद्ध हो, आप हमसे श्रेष्ठ हैं। कृपया शरीर छोड़कर न जाइए। वस्तुतः जन्म-मृत्यु की घटना सबको प्रत्यक्ष होती है, यह एक अनुभूत विषय है तथापि यह कहना प्रायः उचित ही है कि इसका वास्तविक रहस्य सबको ज्ञात नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य-चन्द्रादि को अतिसामान्य मनुष्य भी देखता है किन्तु उनके रहस्य को नहीं जानता। पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, लोक-परलोक, और परम पर्यवसान रूप मोक्ष, इन सभी की अवधारणा के मूल में मृत्यु ही है किन्तु ये सब प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा अविज्ञात हैं। अतः ये विषय अनादिकाल से विवादग्रस्त रहे हैं। यही कारण है कि बालक नचिकेता ने यमराज से यही प्रश्न पूछा था - येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं वराणामेष वरस्तृतीयः / / अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में यह जो संशय है कि कोई तो यह कहते हैं कि मरने के बाद भी यह रहता है और कोई कहते हैं कि यह नहीं रहता। अतः आपके द्वारा उपदिष्ट होकर मैं यह जानना चाहता हूँ। यही मैं अपना तीसरा वर माँगता हूँ। यमराज ने नचिकेता से इस विषय की परम गूढ़ता बताकर उससे वर के रूप में कुछ अन्य पूछने को कहा। इससे स्पष्ट होता है कि जन्म-मृत्यु का रहस्य वस्तुतः अतिगूढ़ है। ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषद् ग्रन्थों में “मृत्यु” को नाना रूपों में परिभाषित किया गया है - . 1. अग्निर्वै मृत्युः - अग्नि मृत्यु है। - मैत्रायणी शाखा 2. प्राप्पो वै मृत्युः - प्राणमृत्यु है। - कण्वशाखा शतपथ ब्राह्मण / 3. अवाङ् प्राणो वै मृत्युः - अवाङ् प्राण मृत्यु है। - माध्यन्दिन शाखा शतपथ ब्राह्मण 4. संवत्सरो मृत्युः / एष हीदमहोत्राभ्यामायुः क्षिणोति / अथ म्रियन्ते - संवत्सर मृत्यु है। यही दिन और रात्रि द्वारा आयु का क्षय करता है। अतः (लोग) मरते हैं। - माध्यन्दिन शाखा शतपथ ब्राह्मण 4. कठोपनिषदः 1; 1; 201 5. वही, 1,1,21, देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः / 6. कल्याण-विशेषांक, वर्ष 43, अंक, पृ. 14-151