________________ जैन धर्म में जन्म और मृत्यु - सियाशरण पाण्डेय जन्म एवं मृत्यु की प्रक्रिया मात्र एक जैव-वैज्ञानिक घटना ही नहीं है बल्कि इसका एक व्यापक धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ भी है। जैव-वैज्ञानिक घटना के रूप में जन्म एवं मृत्यु को हर्ष और विषाद का विषय नहीं बनाया जा सकता। यह दुःखद एवं सुखद व्यापक सामाजिक संदर्भो में ही होता है। इसके औचित्य एवं अनौचित्य तथा आधुनिक समाज में इससे सम्बन्धित भ्रूण-हत्या एवं इच्छामरण (युथेनेसिया) जैसे उग्र एवं विवादास्पद प्रश्नों पर व्यापक सामाजिक संदर्भो में ही विचार किया जा सकता है; केवल वैज्ञानिक दृष्टि ऐसी समस्याओं पर सम्यक् रूप से विचार करने के लिये पर्याप्त नहीं है। ऐसी संस्कृतियाँ जो जन्म और मृत्यु के एक ही अन्तराल में जीवन को देखती हैं और ऐसी संस्कृतियाँ जो आवागमन के चक्र के रूप में जीवन को समझाती हैं - दोनों के लिये जन्म और मृत्यु का सामाजिक सन्दर्भ अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत होता है। भारतीय संस्कृति में तो जन्म-पूर्व संस्कार एवं मृत्योत्तर संस्कारों के इतने व्यापक रूप एवं संदर्भ देखे जा सकते हैं कि उनके बिना भारतीय परम्परागत समाज एवं जीवनदृष्टि से सम्बन्धित बहुत सी समस्याओं को समझा ही नहीं जा सकता। जन्म और मृत्यु की संस्कृति-सापेक्ष समझ आज के वैज्ञानिक युग में "युथेनेसिया, भ्रूण-हत्या, माँ बनने एवं माँ नहीं बनने के अधिकार की माँग, लिंग पहचानकर भ्रूण-हत्या के प्रयास, इत्यादि समस्याओं पर एक वैश्विक सामाजिकं समझ के लिये जन्म और मृत्यु की संस्कृति-सापेक्ष समझ आवश्यक है। प्रस्तुत आलेख में हम जैव-वैज्ञानिक एवं चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से मृत्यु की घटना से सम्बन्धित कुछ समस्याओं को रेखांकित करते हुए जैन धर्म के अनुसार जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया को निरूपित करने का प्रयास करेंगे। वास्तव में विज्ञान मृत्यु की सम्यक् व्याख्या नहीं कर सकता, वह केवल मृत्यु की रिपोर्ट मात्र ही दे सकता है क्योंकि विज्ञान आज तक सनातन चेतन तत्त्व को स्वतन्त्र द्रव्य या स्वतन्त्र शक्ति के रूप में नहीं स्वीकार कर पाया है। विज्ञान पञ्चभौतिक शरीर को ही अन्तिम सत्ता मानकर मृत्यु के विषय में इतना ही कहता