________________ 124 . मृत्यु की दस्तक अलौकिक होता है। देवता के पश्चात् सनातन हिन्दू समाज में पितर का ही स्थान होता है एवं अनेक शुभ कार्यों में उनका आह्वान किया जाता है एवं पूजा की जाती है। मृत्यु के पश्चात् अन्त्येष्टि से लेकर श्राद्धकर्म तक विभिन्न जातियाँ एक-दूसरे की सहायता करती हैं। उदाहरण के लिये यदि किसी ब्राह्मण की मृत्यु हुई है तो काशी में अग्नि डोम से ली जाती है। महाब्राह्मण अन्त्येष्टि कराता है, नाई पंचनख काटता है एवं बारह दिनों तक श्राद्धकर्म के दौरान महाब्राह्मण एवं कर्ता की सहायता पूरी श्रद्धा एवं लगन के साथ करता है। कुम्हार मिट्टी का बर्तन देता है, डोम बाँस का बर्तन देता है, बढ़ई लकड़ी का सामान बनाकर देता है एवं सभी सेवा के बदले में पारितोषिक प्राप्त करते हैं। हिन्दू समाज में मृत्यु के कर्मकाण्ड एवं अन्य सामाजिक कार्यों में यजमानी व्यवस्था के द्वारा सभी जातियों के लोग एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। हिन्दू समाज मृत्यु को ही जीवन का अंत नहीं मानता बल्कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति अलौकिक रूप से पितर के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रहता है। इस प्रकार गीता में वर्णित आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म का संदेश मृत्यु के प्रचलित कर्मकाण्ड द्वारा सिद्ध होती है। मृत्यु के कर्मकाण्ड की व्यापकता सनातन संस्कृति की एक अनुपम व्यवस्था है जो इसे अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों से पृथक् करती है। संदर्भ ग्रंथ कठोपनिषद्। कृत्यसारसमुच्चय, श्रीमदमरनाथ झा, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 2000 / श्रीमद्भगवद्गीता। गरुड़ पुराण। Brahmanic Ritual Tradition, B.N. Saraswati, Indian Institute of Advanced Study, Simla, 1997. Death In Banaras, Jonathan P. Parry, Cambridge University Press, 1994 हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, 1995 / श्राद्ध पारिजात, रुद्रदत्त पाठक, विष्णु प्रकाशन औरंगाबाद (बिहार) संवत्, 2057 | श्राद्ध पद्धति, पं. रामचन्द्र झा द्वारा सम्पादित, संस्कृत सीरिज़ चौखम्भा, वाराणसी।