________________ मृत्यु का कर्मकाण्ड - संतोष कुमार मिश्र जीवन क्या है और मृत्यु क्या है? यह एक सनातन और शाश्वत् प्रश्न है। संसार के प्रायः सभी धर्मों, सम्प्रदायों तथा दर्शनों में लोक-परलोक तथा पुनर्जन्म की चर्चा की गयी है। कठोपनिषद् तथा श्रीमद्भगवद्गीता के बीज प्रश्न भी यही हैं। अन्यान्य उपनिषदों-पुराणों और दर्शन-ग्रंथों में भी इस विषय पर विचार हुआ है। वस्तुतः जीवन और मृत्यु, पुनर्जन्म तथा परलोक-संबंधी संवाद के बिना अध्यात्म विमर्श हो ही नहीं सकता। मनुष्य मृत्यु से घबराता है। इसके बारे में सोचने से कतराता है क्योंकि वह मृत्यु ही है जो प्राणी के अस्तित्व को ही मिटा देती है, उसे वर्तमान से भूत में बदल देती है। इसलिये मृत्यु हमेशा से दार्शनिकों और धर्म-ग्रन्थों के पाले में रही। रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने गरु वशिष्ठ से पछा था "मत्य क्या है?" गरु वशिष्ठ ने भगवान श्रीराम से प्रतिप्रश्न किया - अगर तुम शैय्या पर लेटे हो और छत से साँप लटकता नजर आये तो तुम क्या करोगे? भगवान श्रीराम ने कहा - हम वहाँ से भाग जायेंगे। वशिष्ठ ने कहा तो बस मृत्यु भी यही है। इससे बचो; भाग निकलो। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में मृत्यु की विशद् एवं गंभीर व्याख्या की है। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च / तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि / / वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यानि संयाति नवानि देही।। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः / न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः / / जीवन और मृत्यु एक चक्र है, यह जीवन की निरंतरता है क्योंकि आत्मा अमर है। यह कभी नहीं मरती। किसी भी कारण से नहीं, बस चोला बदल लेती है। नचिकेता तो चल पड़ा था,