________________ श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् :: अभ्ययनं 32 ] [ 171 // 16 // स्वाभिकवित वि मा गस्त, संपारभीरुल ठिपल धम्मे / नेपारिमं दुत्तरमत्यि लोए, जहत्थियो बालमणोहरायो // 17 // एए य संगा समहक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव हवंति सेसा / जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा // 18 // कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्न सदेवगस / जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तयं गच्छइ वीयरागो // 11 // जहा य किंागफला मणोरमा, रसेण वन्नेण य भुजमाणा। ते खुद्दए जीविय पञ्चमाणा, एयोवमा कामगुणा विवागे // 20 // जे इन्दियाणं वि तया मणुराणा, न तेसु भावं निमिरे कयाई / न यामणुन्नेसु मणं पि दुजा, समाहिकामे समणे तवस्सी // 21 // चक्खुस्स एवं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुनमाहु / तं दोस्.हेउं अमणुन्नमाहु, समो अ जो तेसु स वीयरागो // 22 // रूपस्स चक्खु गहणं वय.न्त, चखुस्म रूवं गहणं वयन्ति / रागस्त हेउं समणु त्रमाहु, दो रस्म हेउं अमणुन शाहु // 23 // ख्वेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं / रागाउरे से जह वा पयंगे, बालोअलोले समुवेइ मच्चु // 24 // जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि वखणे से उ उवेइ दुक्खं / दुइन्तदोसेण सएण जन्तु, न किंचि रूवं अवरझई से // 25 // एगन्तरत्तो रुइरंसि स्वे, अतालिसे कुणई पयो / दुक्खम्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागे // 26 // रूवाणुगाप्ता(वाया)णुगए य जीवे, चराचरेहिं सय(हिंसइ)णेगरूवे / वित्तेहिं ते परियायेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिट्टे // 27 // रुवाणुवाए(रागे)ण पोरेग्गहेण, उपायणे रक्खणसन्निधागे / वए वियोगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ? // 28 // रूवे अतित्ते अपरिग्गहमि, सत्तोवसत्तो उ उवेइ तुहि। अत्रुट्ठिोसेण दुही परस्स, लोभाविले अाययई अदत्तं // 26 // तराहाभिभूयस्म अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य / मायामुसं वडइ लोभदोमा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से // 30 // मोसरस