________________ श्रीमदुत्तराष्पयनसूत्रम् :: अध्ययनं 2 ] [161 संनिवेमणयाए णं भंते ! जीवे किं जणेइ ? एगग्गमण-संनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ // 25 / संजमेणं भन्ते ! जीवे किं जणेइ ? संजमेणं अणराहयत्तं जणेइ // 26 // तवेणं भन्ते ! जीवे किं जणेइ ? तवेणं वोयाणं जणेइ // 27 // वोयाणेणं भन्ते ! जीवे कि जोइ ? वोयाणेणं अकिरियं जोइ, अकिरियाए भवित्ता तो पच्छा सिन्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमन्तं करेइ // 28 // सुहसायाए (सुहसाए) णं भन्ते ! जीवे किं जणेइ ! सुहमायाए णं अणुस्सुयत्तं जोड, अणुस्सुए णं जीवे अणुकम्पए अणुभडे विगयपोगे चरित्तमोहणिज्जं कम्मं खवेइ॥२॥यप्पडिबद्धयाए णं भन्ते ! जीवे किं जोइ ? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगत्तं जोइ, निस्सगंरेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य रायो य असजमाणे अप्पडिबद्धे प्रावि विहरइ // 30 // वि.वेत्त मयणा रणयाए णं भन्ते ! जीवे किंजणेइ ? विवित्तसयणासणयाए णं चरिनगुत्तिं जोइ, चरित्तगुत्ते णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगन्तरए मुक्खभाव-पडिवन्ने अट्टविहं कम्मगशिंठ निजरेइ // 31 // विणिवट्टणयाए भन्ते ! जीवे कि जणेइ ? विणिवट्टणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए अभुदेइ, पुव्यवद्धाण य निजरणयाए पावं नियत्तेइ, तो पच्छा चाउरन्तं संसारकन्तारं वीईवयइ // 32 // संभोग-पञ्चवखाणेणं भन्ते ! जीवे किं जोइ ? संभोग-पञ्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ, निरालम्बणस्म य थाययट्ठिया जोगा भवन्ति, सएणं लाभेणं संतूसइ परस्स लाभं नो यासाएइ नो ताकेइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो अभिलसइ, परस्म लाभं अणासाएमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसेमाणे दुच्चं सुहसिज्ज उवसंपज्जित्ता णं विहरइ // 33 // अहिपञ्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणेइ ? उवहिपञ्चवखाणेणं अपलिमन्थं जणेइ, निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे उवहिमन्तरेण य न संकिलिस्सइ ॥३४॥आहारपञ्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किंजणेइ ? थाहार-पच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पयोगं वुच्छिन्दइ, जीवियासंसप्पयोगं वृच्छिदित्ता (जीवियासविष्पयोगं