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________________ भीज्ञाताधर्मकथाङ्ग-जूत्रम् / अध्ययनं 17 ] [ 225 समुप्पन्ने जाव सिद्धा 8 // सूत्रं 136 // तते णं सा दोवती अजा सुव्बयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाझ्याइं एकारस अंगातिं अहिजति 2 बहूणि वासाणि सामराणपरियागं पालयित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सटैि भत्ताइं अणमणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कता कालमासे कालं किचा बंभलोए उववन्ना, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पत्नत्ता, तत्थ णं दुवतिस्स देवस्स दस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, से णं भंते ! दुवए देवे ततो जाव महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिति / एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं श्राइगरेणं तित्थगरेण जाव संपत्तेणं सोलमरस नायज्झयणस्स अयम? पराणत्तेत्तिबेमि // सूत्र 137 // सोलसमं नायज्झयणं समत्तं // // इति षोडशमध्ययनम् // 16 // // 17 // अथ श्री अश्वाख्यं सप्तदशमध्ययनम् // जति | भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्त णायज्झयणस्स अयम? पराणत्ते सत्तरसमस्स णं भंते णायज्मयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं 2 हत्थिसीसे नयरे होत्था, वराणो, तत्थ णं कणगकेऊ णाम राया होत्था, वरणश्रो 1 / तत्थ णं हस्थिसीसे णयरे बहवे संजुत्ताणावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था, तते णं तेसिं संजुत्ताणावावाणियगाणं अन्नया एगयश्रो जहा अरहराणो जाव लवणसमुह अणेगाइं जोयणसयाइं योगाढा यावि होत्था, तते णं तेसि जाव बहूणि उप्पातियसयाति जहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए य तस्थ समुत्थिए, तते णं सा णावा तेणं कालियवाएणं श्राघोलिजमाणी 2 संचालिजमाणी 2 संखोहिजमाणी 2 तत्थेव परिभमति 2 / तते णं से तेसि संजुनाणामाई जोयणसयाई भागदियदारगाणं जाबायोलिजमा
SR No.004365
Book TitleAgam Sudha Sindhu Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendravijay Gani
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1976
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_gyatadharmkatha, agam_upasakdasha, agam_antkrutdasha, agam_anuttaropapatikdasha, agam_prashnavyakaran, & agam_vipakshrut
File Size12 MB
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