________________ श्रीमन्सूत्रकृताङ्गम् :: श्रुतस्कंधः 1 अध्ययनं 5 ] [ 161 // अथ पञ्चमे नरकविभक्त्यध्ययने प्रथमोद्देशकः // ____ पुच्छिरसऽहं केवलियं महेसिं, कहं भितावा गरगा पुरस्था ? / अजा यो मे मुण ब्रूहि जाण, कहिं नु बाला नरयं उविति ? // 1 // एवं मए पुढे महाणुभावे, इणमोऽस्वी कासवे श्रास्लुपन्ने / पवेदइस्सं दुहमट्ठदुग्गं, यादीणियं दुक्कडियं (दुकडिणं) पुरथा // 2 // जे केइ बाला इह जीवियट्टी, पावाई कम्माई करंति रुदा / ते घोररूवे तमिसं क्यारे, तिव्वाभितावे नरए पति // 3 // तिवं तसे. पाणिणो थावरे य, जे हिंसती यायसुहं पडुच्चा / जे लूमए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि // / // पागन्भि पाणे बहुणं तिवाति, अनिव्वते घातमुवेति बाले / णिहो णिसं गच्छति अंतकाले, ग्रहोसि कट्टु उवेइ दुग्गं // 5 // हण छिदह भिंदा णं दहेति, सद सुणिंता परहम्मियाणं / ते नारगायो भयभिन्नसन्ना, कंखंति कन्नाम दिसं वयामो ! // 6 // इंगालरातिं जलियं सजोतिं, तत्तोवमं भूमिमणुकमंता। ते डझगणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरद्वितीया // 7 // जइ ते सुया वेयरणी भिदुग्गा, णिसियो जहा खुर इव तिवखसोया / तरंति ते वेपरणी भिन्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा ॥८॥कीलेहिं विझति असाहुक मा, नावं उविते सइविप्पहूणा / अन्ने तु सूलाहिं तिसूलियाहिं, दीहाहिं विद्धूण ग्रहेकरंति // 1 // केसिं च बंधित्तु गले सिलायो, उदगंसि बोलंति महालयसि / कलंबुयावालुय मुम्मुरे य, लोलंति पच्चंति य तत्थ अन्ने // 10 // अ(या)सूरियं नाम महाभितावं, अंधंतमं दुप्पतरं महंतं / उड्दं अहे तिरियं दिसासु, समाहियो (समूसिया) जत्थगणी झियाई // 11 // जंसी गुहाए जलणेऽतिउटे, अविजाणयो डज्मइ लुत्तपराणो। सया य कलुणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं // 12 // चत्तारि अगणीयो समारभित्ता, जहि कूरकम्माऽभितविति बालं / ते तत्थ चिठंतऽ